Wednesday, October 23, 2013

शाहिद आज़मी: एक गुमनाम मसीहा




             शाहिद के बारे में काफी दिनों से सुन रहा था। सुनते सुनते मुझसे रहा नहीं गया और मेरे कदम खुद ब खुद सिनेमा हाॅल की तरफ बढ़े चले गए। इतने दिन टालमटोल करने के बाद आखिरकार आज हंसल मेहता की ‘‘शाहिद’’ देख डाली। फिल्म का पहला ही दृश्य दिल में छेद करने के लिए काफी है। वहीं से मुझे समझ आ गया कि आखिर क्यों शाहिद की शहीदी पिछले कुछ समय से चर्चा का विषय बनी हुई है।
             मैं यहां पर कोई फिल्म की समीक्षा नहीं कर रहा। बल्कि उस शाहिद की कहानी के बारे में बताना चाह रहा हूं जो समय की पर्त में लिपटी हुआ गुमनामी के अंधेरे में कहीं किनारे पड़ी धूल खा रही थी। शाहिद चला गया लेकिन अपने पीछे काफी कुछ छोड़ गया। हंसल मेहता ने फिर दोबारा शाहिद आज़मी को जिंदा कर दिया। तमाम बेगुनाहों की आखिरी आस बन चुके शाहिद को 2010 में मौत के घाट उतार दिया गया था। 14 वर्ष की उम्र में 1992 में  बाबरी मस्जि़द ढ़हाए जाने के दौरान दंगा फैलाने के केस में गलत फंसाए जाने से क्षुब्द्ध शाहिद ने पाकिस्तान जा कर हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी लिया। वहां से लौटने के बाद उसे एक बार फिर सलाखों के पीछेे जाना पड़ता है। जेल में ही उसे आगे पढ़ने की ललक जाग उठती है। जेल से निकलने के बाद शाहिद वकील बनकर उसके जैसे तमाम बेगुनाहों को न्याय दिलाना उसका मकसद बन जाता है। दूसरों के हक के लिए लड़ते लड़ते वह खुद से हार जाता है। मात्र 33 वर्ष की उम्र में 11 फरवरी 2010 को उसके आॅफिस में ही उसकी गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। वकील के रूप में अपने छह साल के कैरियर में उसने 17 बेगुुनाहों को बरी कराया। जिनमें से अधिकतर मुस्लिम युवक थे।
          आज शाहिद पूरी दुनिया के सामने है भले ही वह हमारे बीच न हो। हकीकत यह है कि आज शाहिद का परिववार उस पर बनी फिल्म नहीं देखना चाहता, खासतौर पर उसकी अम्मी उसे दोबारा मरते हुए नहीं देखना चाहती और शायद हम सब भी.................

Sunday, October 6, 2013

डर के आगे जीत है


भय का पूरा मनोविज्ञान इसी वाक्यांश पर आधारित है ’’डर का कारण वही है, जो वास्तव में नही है’’।
        जरा कल्पना कीजिए कि रात में आप घर पर अकेले हों और आपको बाथरूम से पानी टपकने की आवाज सुनाई दे, कमरे का दरवाजा की चर्र-चर्र की ध्वनि के साथ धीरे-धीरे खुले और परदे के पीछे किसी की परछाई दिखाई पड़े। या फिर आप रात में सुनसान रोड़ में गाड़ी चला रहे हों और अचानक आपको बीचो बीच सड़क पर खड़ी एक औरत दिखाई पड़े..................
आमतौर पर कुछ ऐसे ही भयानक भयानक किस्से लोगों को डराने के काम आते हैं। बाहर बाजार में भय बेचा जा रहा है। स्टेशन पर लगे बुक स्टालों से लेकर सिनेमा हाॅल तक डर बिक रहा है। हमें डर लगता है हम जानते हैं। फिर भी हम डरने के लिए भूत प्रेत की कहानियों वाली किताबें खरीद कर पढ़ते है, हाॅरर मूवीस् देखने जाते हैं। भारत में आज भी सबसे ज्यादा भूतों का प्रकोप है। हर मुहल्ले से आपको भूतों का एक नया किस्सा मिल जाएगा। जितने लोग उतने प्रकार के भूत। किसी ने उल्टे पैर वाला भूत देखा तो किसी ने नाक के बल बोलने वाला भूत देखा है। समय के साथ भूतों की वैराइटी में भी परिवर्तन हो रहा है। पुराने समय में लोग नर भूतों को देखा करते थे। फिर बीच में खुले बाल, सफेद साड़ी में लिपटी नारी भूत नजर आने लगी। वर्तमान में बच्चों को भूत बना कर पेश किया जा रहा है। पिछले साल रामगोपाल वर्मा ने अपनी फिल्म भूत रिटर्नस् में ऐसा ही प्रयोग किया था।

भारत में भुतही आत्माओं के काफी किस्से प्रचलित हैं। कई इमारतें आधिकारिक रुप से हाॅन्टेड घोषित की जा चुकी हैं। इन्ही में से एक राजस्थान स्थित भानगढ़ के किले के बारे में एक बेहद रोचक किस्सा प्रचलित है, लोगों का मानना है कि बहुत समय पहले यहां रत्नावती नाम की बहुत सुंदर राजकुमारी रहती थी जिस पर काला जादू करने वाले तांत्रिक की कुदृष्टि थी। तांत्रिक ने अपने जादू से राजकुमारी को अपने वश में कर उसका शारीरिक शोषण किया। लेकिन एक दुर्घटना के चलते उस तांत्रिक की मृत्यु हो गई और आज भी उस तांत्रिक की आत्मा वहीं भटकती रहती है। तांत्रिक के श्राप के अनुसार वह स्थान कभी भी बस नहीं सकता। वहां रहने वाले लोगों की मृत्यु हो जाती है लेकिन उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती। और भी अनेक इमारतें तरह तरह की भ्रांतियों और अंधविश्वास के लिए चर्चित हैं।
एक शोध के अनुसार पता चलता है कि मनुष्य को सबसे ज्यादा भय रात के समय लगता है या फिर तब जब वह अकेला होता है। एक साधारण मनुष्य के जीवन में भय एक ऐसी चीज है जो उसका ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती। किसी को मौत से भय लगता है तो किसी को असफलता से ,किसी को सांप से तो किसी को बंदर से, आदि आदि तरह से लोगों को डर लगता है। इसी भय के साथ मनुष्य के मष्तिस्क में नकारत्मक ख्याल उपजने शुरू हो जाते हैं। साइंस के अनुसार भूत प्रेत और आत्माएं इंसानी दिमाग की ही उपज है। इंसान ने ही अपनी कल्पना के आधार पर भूत-प्रेतों को जन्म दिया है। इंसानो ने ही भूतों के आने-जाने का समय तय कर दिया उनके रहने का स्थान तय कर दिया। समय के साथ साथ भूतों ने इंसानी मस्तिष्क पर डेरा डालना शुरू कर दिया और आज इंसान अपने ही दिमाग की उपज से भयभीत होता रहता है। मनुष्य कौम अप्रत्याशित चीजों से सबसे अधिक भयभीत रहती है। वास्तविक समाज में नर मनुष्य सबसे ज्यादा क्रूर हैं हिंसक हैं इसलिए प्रायः उनका भूत नही गढ़ा जाता, स्त्री और बच्चे जिनके हिंसक होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते अधिकांशतः उन्ही को भूत बनाकर पेश किया जाता है और हम उनसे डरते हैं क्यों कि वह हमारे लिए अप्रत्याशित है। भय का पूरा मनोविज्ञान इसी वाक्यांश पर आधारित है ’’डर का कारण वही है, जो वास्तव में नही है’’।
धीरे-धीरे मीडिया ने भी भय को भुनाना शुरु कर दिया। फिल्म जगत के तमाम बुद्धिजीवियों ने भय बेंच-बेंच कर लाखों-करोड़ो कमाए। फिल्मों में खिड़कियों की धूम-धड़ाम, तेज हवा में जलती मोमबत्ती पकड़े औरत, परदे के पीछे परछाई, हवेली से आती घुंघरूओं की आवाज, बीचो बीच सड़क पर सफेद साड़ी में लिपटी खड़ी औरत आदि आदि के दृश्यों के माध्यम से भूतों को आकार देने की कोशिश की गई।   कहते है भय की भयावहता उसकी अधिकता के साथ क्षीण पड़ने लगती है। फलस्वरुप, समयोपरान्त लोगों ने प्रत्येक हाॅरर फिल्म में दिखाए जाने वाले इन्ही घिसे पिटे दृश्यों को देखकर डरना बंद कर दिया तो उन्हे दूसरे तरीकों से डराना शुरू कर दिया गया। जिन लोगों ने भूतों पर पूरी तरह काबू पा लिया गया है उनका खून चूसने के लिए नया हीरो ‘जांबीस’ जन्म ले चुका है। गो गोवा गाॅन के रिलीज के साथ ही भारत में भी जांबीस पदार्पण कर चुके हैं।
जैसे-जैसे लोगों ने पुराने किरदारों से डरना बंद कर दिया उन्हे डराने के लिए नए नए किरदार गढ़े जाने लगे। लोगों को सबसे ज्यादा भय नकारात्मकता से लगता है। अगर हम नकारात्मक सोचना बंद कर दें तो काफी हद तक भय से छुटकारा पाने में सक्षम हैं क्यों कि डर के आगे जीत है।

प्रशांत सिंह
9455879256