Thursday, July 16, 2015

लौकी की बर्फी


(29 जून 2015 को जनसत्ता में प्रकाशित जनसत्ता की वेबसाईट पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें अथवा जनसत्ता के ई-पेपर में पढ़ने के यहां क्लिक करें)

बकी बार जब घर से लौट रहा था तो घर पर मां नहीं थीं। कोई जरूरी काम आ जाने की वजह से वे कुछ दिनों के लिए बाहर गई थीं। हालांकि महीनों बाद कुछ दिनों के लिए घर जाना और कई महीनों के लिए फिर वापस लौट आने की जब बारी आती है तो हर कोई भावुक हो जाता है। सालों तक हमारे नखरे सहने वाले माता-पिता, जिस घर की दीवारों में आपकी सांसें बसती हों, जो परिवार आपके पीछे साए की तरह खड़ा रहता हो, उसे छोड़ कर जाना वाकई आसान काम नहीं है। घर से विदा लेने की इस नाजुक घड़ी में भावुकता कई बार तो आंसुओं के रूप में भी बाहर आ जाती है।
हर बार की तरह मैंने फिर हंसते हुए घर से कुछ यों विदा ली, मानो पास के नुक्कड़ तक जाकर वापस आना हो। परिवार का हर सदस्य घर की चौखट पर से मुझे विदाई दे रहा था। इस बीच मैं जरा भी भावुक नहीं दिखा या फिर भावुक न होने का नाटक कर रहा था। उन सबके मुस्कराते चेहरे मुझमें घर से दूर रहने की इच्छाशक्ति भर रहे थे। अहिस्ता-अहिस्ता मेरे और उनके बीच फासला बढ़ता जा रहा था। आंखों के सामने सब धुंधला पड़ने लगा था। मगर मेरी आंखें कुछ खोज रही थीं। शायद वह मां थीं, जिन्हें मैं खोज रहा था। मां के बिना चौखट सूनी लग रही थी। उन सबसे रुखसत होते हुए मैं दोबारा पलट कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। अंदर भावनाओं ने उथल-पुथल मचा रखी थी, लेकिन मैं मुस्कराते हुए विदा हो रहा था, अगले कुछ महीनों के लिए।
पूरे सफर के दौरान मां और उसके हाथ की बनी लौकी की बर्फी याद आती रही। अमूमन मैं घर से खाने-पीने की चीजें अपने साथ नहीं ले आता। शायद इसलिए कि बाहर रहते हुए वह मेरी कमजोरी न बन जाए। काफी ना-नुकुर के बाद आखिर मैं मां से हार ही जाता था। पिछली बार करीब 6 महीने पहले घर गया था। वापस लौटते वक्त मां ने चोरी-छिपे मेरे बैग में घर की बनी लौकी की बर्फी रख दी थी। यह शायद मां की ममता ही है, जो शून्य में भी संभावनाएं तलाश लेती है। मुझे याद है कि उस बार जब मैं लौटा था तो बर्फी के हर एक टुकड़े के साथ खूब रोया था। शायद ये वही आंसू थे, जो हर बार घर से विदा होने के वक्त मैंने अपनी छाती में दफ्न कर रखे थे। बर्फी का अंतिम टुकड़ा खत्म होने तक यह सिलसिला जारी रहा। उसे याद कर आज भी आंसू निकल आते हैं।
इस बार गांव में करीब दस दिन बिताने के बाद जब लौट कर इंदौर पहुंचा तो बिना देर किए पूरा बैग पलट डाला। हालांकि मैं यह जानता था कि बैग में कपड़ों के अलावा कुछ और नहीं है। हर बार की तरह इस बार भी मैंने घर के सदस्यों के तमाम आग्रह के बावजूद कुछ भी साथ ले जाने से इनकार कर दिया था। इस बार घर में जोर-जबरदस्ती करने वाली मां नहीं थीं। लेकिन यह शायद मां की ममता ही थी, जिसने मुझे बैग खंगालने को मजबूर कर दिया। इसके बावजूद मैं न जाने किस उम्मीद में कपड़ों की तह खोलते हुए उसमें कुछ खोज रहा था कि अचानक फिर से मां के हाथ की बनी लौकी की बर्फी याद आ गई। बस फर्क यह था कि इस बार मेरे हाथ में बर्फी की जगह कपड़े थे, जिन्हें हाथ में लेकर मैं बिना रुके रोए जा रहा था!

Monday, April 6, 2015

क्यों कि तुम स्त्री हो...

डीएनए में 6 अप्रैल 2015 को प्रकाशित
7 अप्रैल 2015 प्रभात खबर,पटना

Saturday, April 4, 2015

क्यों कि तुम स्त्री हो...


मैं पुरुष हूं, तुम स्त्री हो और
स्त्रियों की तरह रहो। तुम्हारे चारो तरफ लक्ष्मण रेखा खिंची हुई है, उसके अंदर रहो।  भारत पुरुष प्रधान देश है। मुझे नहीं अच्छा लगता कि कोई स्त्री मुझसे ज्यादा काबिल बने, या फिर उसके मामलों में दखलंदाजी करे। तुम सदियों से चाहरदिवारी के पीछे कैद एक नौकरानी की तरह रहती आई हो और उसी तरह रहो। तुम मेरे लिए एक वस्तु की तरह हो वस्तुत: बनने की कोशिश भी न करो।   

तुम घर में काम करने के लिए बनी हो। तुम बच्चे पैदा करने के लिए बनी हो। तुम पुरुषों को सुख देने के लिए बनी हो। तुम्हे न बोलने का हक है। न खुलकर हंसने का और न ही खुलकर रोने का। तुम वही करोगी जो मैं तय करूंगा। तुम वही पहनोगी जो मैं चाहूंगा। तुम्हे अपनी मर्जी चलाने का कोई अधिकार नहीं है। आंसू बहाना तुम्हारी किस्मत का सच है। क्यों कि तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं। 

तुम्हारे शरीर के एक-एक अंग के बारे में, तुम्हारी हर एक हरकत के बारे में फैसला करने का अधिकार सिर्फ मेरे पास है। मैं कभी भी कहीं भी जा सकता हूं बिना तुमसे बताए। लेकिन तुम्हे कहां जाना है और क्या करना है इसका फैसला मैं करूंगा। क्यों कि तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं।

मैं सिगरेट पियूं या शराब पियूं , गोश्त खाऊं ,तुमसे क्या मतलब। लेकिन तुम्हे क्या खाना है कब खाना है और क्यों खाना है ये मैं तय करूंगा। मैं देर रात घर लौटूं, या न लौटूं। तुमसे क्या मतलब। लेकिन तुम्हे कब सोना है कब जागना है, ये मैं तय करूंगा। क्यों कि तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं।

 तुम्हे किससे शादी करनी है । क्यों करनी है। कब करनी है। यह भी मैं तय करूंगा । मैं अपने दोस्तों से आपस में क्या बात करता हूं, क्यों करता हूं, तुम्हे यह जानने का कोई हक नहीं लेकिन तुम्हे क्या बोलना है कब बोलना है और क्यों बोलना है, ये मैं तय करूंगा। क्योंकि तुम...! 

मैं दिन भर क्या करता हूं , कहां रहता हूं। तुम्हे यह जानने का कोई हक नहीं। लेकिन तुम दिनभर क्या करोगी कहां रहोगी यह भी मैं तय करूंगा। तुम चाहरदिवारी के भीतर ही अच्छी लगती हो। तुम्हारी जगह वहीं है। तुम्हे बाहर निकलने का कोई हक नहीं है। तुम मेरे लिए एक वस्तु हो। मैं तुम्हारे साथ कभी भी कुछ भी कर सकता हूं। तुम्हे डांट सकता हूं, झिकझोर सकता हूं। यहां तक कि तुम्हे पीट सकता हूं। लेकिन तुम्हे मेरे ऊपर हाथ उठाने का कोई हक नहीं है। क्यों कि तुम...! 

मैं जब चाहूं तब तुम्हारे साथ सेक्स करूं, जोर-जबरदस्ती करूं , छेडख़ानी करूं, कमेंट पास करूं, भद्दी टिप्पणियां करूं, बिस्तर पर अपनी मर्जी चलाऊं, पराई औरत संग सेक्स करूं , सब मेरी मर्जी है। मैं दो शादी करूं या चार। मैं दो पत्नियां रखूं या दो दर्जन। लेकिन तुम दो शादी नहीं कर सकती, दो पति नहीं रख सकती। दो पुरुषों के साथ सेक्स नहीं कर सकती। बिस्तर पर अपनी मर्जी नहीं चला सकती। तुम्हे कितने बच्चे पैदा करने है, क्यों करने हैं और कब करने हैं । लड़की पैदा करना है या लड़का । ये मैं तय करूंगा। क्यों कि ...! 

हां तुम स्त्री हो और स्त्री की यही परिभाषा है। हमारा समाज स्त्री को इसी नजर से देखता है। पुरूषों की मानसिकता में स्त्री इससे ज्यादा कुछ  भी नहीं है। तुम भले ही लाख वूमेन एम्पावरमेंट चिल्ला लो, लेकिन मेरी नजर में तुम्हारी परिभाषा नहीं बदलने वाली। क्यों कि ...! 

हाल ही में दीपिका पादुपकोण और वोग मैग्जीन ने वूमेन एम्पावरमेंट को इंगित करता मॉय च्वॉइस नाम का एक वीडियो जारी किया था। जिसके बाद से बुद्धिजीवियों और फेमिनिस्टों में लंबी बहस छिड़ गई है। एक ओर जहां मॉय च्वॉइस नामक इस वीडियों के साथ दीपिका की जम कर आलोचना हो रही है, वहीं कुछ लोग महिला सशक्तिकरण को लेकर वीडियो और दीपिका के सर्मथन में झंडा बुलंद कर रहे हैं। हालांकि इस वीडियो के पक्ष से ज्यादा विरोध में सुर उठे हैं। इस बात से यह फिर से साबित हो जाता है कि एक स्त्री को पुरुषों की अपेक्षा से इतर जाकर कुछ सोचने का अधिकार नहीं है। 

हालांकि सेक्सिज़म और अश्लीलता को वूमेन एम्पावरमेंट बताना मुद्दे के साथ बेईमानी होगी। मगर इस मुद्दे पर  उंगली उठाने वाले खुद अपनी गिरेबान में झांक कर देखें तो वह उतने ही नंगे नजर आएंगे जितना कि यह वीडियो औरतों को कपड़े उतारने और सेक्सिज़म को प्रेरित करता है। आखिर क्यों ऐसा होता है कि हर पुरुष राह चलती औरत के कपड़ों के भीतर झांक कर देख लेना चाहता है? क्यों खयालों ही खयालों में उसे नंगा करने की जुगत में लगा रहता है? जिस दिन पुरुष इन सवालों का जवाब तलाश लेंगे उस दिन से एक स्त्री को महिला सशक्तिकरण के लिए लड़ना नहीं पड़ेगा। आज जब स्त्रियों के लिए किसी ने दमदारी के साथ आवाज उठाई है तो हम नैतिक संस्कारों और मूल्यों का दुहाई देते फिर रहे है। क्या स्त्री होना वाकई इतना कठिन है। क्या जिंदगी के रंग मंच में स्त्री के लिए इससे बेहतर कोई और स्क्रिप्ट नहीं लिखी गई। आखिर स्त्री और पुरुष एक ही कोख से जन्में दो पहलू हैं। दोनों ईश्वर की समान कृति हैं। फिर स्त्री होना इतना कठिन क्यों है?


Wednesday, March 25, 2015

हाशिमपुरा तुम भारत से हार गए!



''हाशिमपुरा'' , अचानक से चर्चा में आया यह शब्द मेरे लिए एकदम नया था। हो भी क्यों न नया? यह घटना तब की थी जब मैं पैदा भी नहीं हुआ था। जब तक मैं समझ पाता कि यह क्या बला है, उससे पहले ही अखबार , टीवी, सोशल मीडिया सब जगह हाशिमपुरा  जंगल में लगी आग की तरह फैल गया। 

जब इस हाशिमपुरा नामक आग के दरिया में थोड़ा करीब से झांक कर
देखा तो पता चला कि इतिहास में कितना कुछ दफन है। बीते 28 सालों से मुर्दे की तरह दफन इस मामले के बारे में इससे पहले शायद मैनें कभी नहीं सुना था, या सुना भी होगा तो याद नहीं। आज इस हाशिमपुरा नरसंहार के 28 साल बीतने के बाद भी लपटें किसी को भी झुलसाने के लिए काफी हैं। दिल्ली से सटे मेरठ के हाशिमपुरा में 22 मई 1987 को पीएसी के जवानों ने मुस्लिम समुदाय के 42 लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी थी। हुआ कुछ यूं था कि 1986 में तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने अयोध्या के विवादित ढ़ांचे को खोलने का फैसला लिया था। जिसके बाद से ही उत्तर प्रदेश में रह-रह कर दंगे भड़कते रहे थे। धीरे-धीरे दंगों की आग मेरठ जिले तक पहुंची। 21 मई 1987 को मेरठ के हाशिमपुरा में एक युवक की हत्या कर दी गई। हत्या के बाद हाशिमपुरा जल उठा। कैसा जल उठा होगा? उस समय क्या हालात रहे होंगे? मुझे पता नहीं। जहां तक मैं अंदाजा लगा सकता हूं, शायद मुजफ्फर नगर दंगो की तरह या उससे भी अधिक भयावह हालात रहे होंगे। पूरा इलाका दंगे की चपेट में आ चुका था।  गली-चौराहे की दुकानों को आग के हवाले किया जा चुका था। दंगा-फसाद चरम पर था। 

22 मई, 1987 को जवानों से लदा पीएसी का एक ट्रक मस्जिद के सामने रुकता है। मस्जिद में धार्मिक सभा चल रही थी। ट्रक से भारी संख्या में जवान उतरते हैं और सभा में शामिल लोगों को हिरासत में ले लेते हैं। यह था इस घटना का पहला दृश्य दूसरा दृश्य इस नरसंहार के पीडि़त मोहम्मद उस्मान की जुबानी, '' उस्मान बताते हैं कि
हम घर पर थे। मैं, मेरे वालिद के साथ बैठा था। कुछ लोग तलाशी के बहाने से आए और हमें घर से बाहर निकाला। हमसे हाथ ऊपर करने को कहा गया और फिर हमें पीएसी के हवाले कर दिया गया। हमने देखा कि वहां बहुत सारे लोग पहले से बैठे हुए थे। शाम के समय सब को ट्रकों में भर के सिविल लाइन्स थाने भेजा गया। फिर उसके बाद करीब 50 मर्दों को छांट कर अलग किया गया। औरतों और बच्चों को एक तरफ कर दिया गया औरतों और बच्चों को छोडऩे को कह दिया था और हमें छांट कर एक तरफ खड़ा कर दिया गया।''

इसके बाद जो हुआ उसका बखान करने में शायद किसी का भी कलेजा कांप उठे। सूरज ढ़लने के बाद सभी को पीएसी की 41 बटालियन के एक ट्रक में लादा गया।  सभी को ट्रक में बैठने के लिए कहा गया और पीएसी के जवान उनकी निगरानी के लिए खड़े रहे। पीएसी के इरादों से बेपरवाह वह सभी शून्य भाव होकर एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। उन बेचारों को क्या पता था कि यह उनकी जिंदगी का आखिरी सफर होगा। ट्रक को मुरादाबाद की गंग नहर की ओर ले जाया गया था। नहर के​ निकट एक जगह ट्रक को रोका गया। वहां एक व्यक्ति को नीचे उतारा गया और उसे गोली मार दी गई। और यह देख ट्रक में बैठे बाकी के लोग सहम गए। पीएसी के इरादों की भनक लगते ही उनमें से कुछ ने हिम्मत कर के ट्रक से कूद कर भागने की कोशिश की लेकिन जवानों ने उन्हें वहीं का वहीं छलनी कर दिया। इसके बाद सभी को नहर में फेंक दिया गया। इस घटना में  42 लोग मारे गए थे। 

यह मामला 28 सालों से कोर्ट में था। समय के साथ इस मामले में भी धूल की परतें भी मोटी हो चुकी थी। न्याय का इंतजार करते-करते पीडि़तों के बाल सफेद हो गए थे। सालों बाद घटना की जांच रिपोर्ट सौंपी गई। मामला दर्ज हुआ।  161 गवाह बने और पीएसी के जवानों को आरोपी भी बनाया गया।  16 जवानों पर मुकदमा चला। 21 मार्च को अदालत ने फैसला सुनाया। लेकिन अदालत ने आरोपियों को सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए बरी करने का हुक्म सुनाया। सालों से दफन हाशिमपुरा मामले में फैसला तो आ गया लेकिन जीत किसकी हुई? हाशिमपुरा पीडि़तों की या फिर खुद को कानून पर चलने वाले संविधानिक गणतंत्र कहने वाले भारत की? 

Tuesday, February 24, 2015

जासूसी कांड: गहरी हैं जड़ें

पेट्रोलियम मंत्रालय में जासूसी कांड  के खुलासे के बाद से ही सरकारी महकमे में हड़कंप मच गया। हालांकि सरकारी मंंत्रालयों में जासूसी की यह पहली घटना नहीं है। देश के सौदागारों का यह गोरखधंधा पिछले कई सालों से चल रहा था। इस जासूसी कांड ने सन 1980 के दशक की यादों को फिर से ताजा कर दिया है, लेकिन इतने व्यापक स्तर पर सरकार की नाक के नीचे से दस्तावेजों की चोरी को अंजाम देना और किसी को भनक न लगना समझ से परे है। इसमें जरूर किसी साजिश की बू आती है। और तो और अब  कोयला और ऊर्जा मंत्रालय के संग जासूसी की चपेट में रक्षा मंत्रालय भी आ गया है।
हालांकि इस बार आरोपी कानून के हत्थे चढ़ गए हैं, लेकिन उनके पीछे बैठे उनके आकाओं तक पहुंचने में कानून के हाथ छोटे भी पड़ सकते हैं। पकड़े गए आरोपियों से देश के बड़े कॉर्पोरेट घरानों के संबंध भी साबित हो गए हैं। गिरफ्तार आरोपियों में से शीर्ष ऊर्जा कंपनियों के वरिष्ठ अधिकारियों समेत तकरीबन दर्जन भर गिरफ्तारियां हुई हैं। गिरफ्तार किए गए लोगों में से आरआईएल के शैलेष सक्सेना, एस्सार के विनय कुमार, केयर्न से केके नाईक, जूबिलैंट एनर्जी के सुभाष चंद्रा और एडीएजी रिलायंस के ऋषि आनंद व मंत्रालय के कर्मचारियों संग बिचौलिए भी शामिल हैं, जबकि जासूसी नेटवर्क की जड़ें और भी गहरी होने का अनुमान है। और तो और जासूसी के तार अब चीन और पाकिस्तान से भी जुडऩे के संकेत मिल रहे हैं।
जासूसी कांड की एक कड़ी अंबानी बंधुओं से भी जुड़ती है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अंबानी घराने के रिश्ते जगजाहिर हैं। ऐसे में सरकार की भूमिका अहम रहेगी। क्या कानून के दायरे में अंबानी को भी खड़ा किया जाएगा? या फिर सिर्फ पकड़े गए कंपनी के कर्मचारियों को बलि का बकरा बना कर मामले को दफन कर दिया जाएगा। इस जासूसी कांड से यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर आती है कि कॉर्पोरेट घरानों ने अपने फायदे के लिए न सिर्फ राजनेताओं का इस्तेमाल किया बल्कि जासूसी का भी सहारा लिया।
हालांकि गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि सभी आरोपियों को कठोरतम सजा दी जाएगी व मामले की जांच भी की जाएगी जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। अब देखना यह होगा कि सरकार आरोपियों को परदे के पीछे दफन करेगी या कॉर्पोरेट हाउसों को जनता के सामने लाकर बेनकाब करेगी।