Wednesday, November 13, 2013

Pray for THIS GOD to THAT GOD.

I was not born when Sachin starts playing cricket. I am not too much crazy about cricket. I am also not sachin's crazy fan,but when ever i watch cricket i always pray for this god to that god. No doubt he is a great player.
I remember a scene, it was 2000-01,when  i was in 3rd standard. I was giving my session examination. And after solving some questions my pen stops at question no.6 which was "Write the name of any three cricket player." And that time i was compelled to think hard. That time i knows the name of one and only Sachin Tendulkar & after so much puzzling i write two names first was Sachin Tendulkar & second was Ajay Jadeja.
After the exam the whole class discussed the question paper with each other & the most amazing out come from the discussion was that the whole class writes a common name that is "SACHIN TENDULKAR".

Wednesday, October 23, 2013

शाहिद आज़मी: एक गुमनाम मसीहा




             शाहिद के बारे में काफी दिनों से सुन रहा था। सुनते सुनते मुझसे रहा नहीं गया और मेरे कदम खुद ब खुद सिनेमा हाॅल की तरफ बढ़े चले गए। इतने दिन टालमटोल करने के बाद आखिरकार आज हंसल मेहता की ‘‘शाहिद’’ देख डाली। फिल्म का पहला ही दृश्य दिल में छेद करने के लिए काफी है। वहीं से मुझे समझ आ गया कि आखिर क्यों शाहिद की शहीदी पिछले कुछ समय से चर्चा का विषय बनी हुई है।
             मैं यहां पर कोई फिल्म की समीक्षा नहीं कर रहा। बल्कि उस शाहिद की कहानी के बारे में बताना चाह रहा हूं जो समय की पर्त में लिपटी हुआ गुमनामी के अंधेरे में कहीं किनारे पड़ी धूल खा रही थी। शाहिद चला गया लेकिन अपने पीछे काफी कुछ छोड़ गया। हंसल मेहता ने फिर दोबारा शाहिद आज़मी को जिंदा कर दिया। तमाम बेगुनाहों की आखिरी आस बन चुके शाहिद को 2010 में मौत के घाट उतार दिया गया था। 14 वर्ष की उम्र में 1992 में  बाबरी मस्जि़द ढ़हाए जाने के दौरान दंगा फैलाने के केस में गलत फंसाए जाने से क्षुब्द्ध शाहिद ने पाकिस्तान जा कर हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी लिया। वहां से लौटने के बाद उसे एक बार फिर सलाखों के पीछेे जाना पड़ता है। जेल में ही उसे आगे पढ़ने की ललक जाग उठती है। जेल से निकलने के बाद शाहिद वकील बनकर उसके जैसे तमाम बेगुनाहों को न्याय दिलाना उसका मकसद बन जाता है। दूसरों के हक के लिए लड़ते लड़ते वह खुद से हार जाता है। मात्र 33 वर्ष की उम्र में 11 फरवरी 2010 को उसके आॅफिस में ही उसकी गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। वकील के रूप में अपने छह साल के कैरियर में उसने 17 बेगुुनाहों को बरी कराया। जिनमें से अधिकतर मुस्लिम युवक थे।
          आज शाहिद पूरी दुनिया के सामने है भले ही वह हमारे बीच न हो। हकीकत यह है कि आज शाहिद का परिववार उस पर बनी फिल्म नहीं देखना चाहता, खासतौर पर उसकी अम्मी उसे दोबारा मरते हुए नहीं देखना चाहती और शायद हम सब भी.................

Sunday, October 6, 2013

डर के आगे जीत है


भय का पूरा मनोविज्ञान इसी वाक्यांश पर आधारित है ’’डर का कारण वही है, जो वास्तव में नही है’’।
        जरा कल्पना कीजिए कि रात में आप घर पर अकेले हों और आपको बाथरूम से पानी टपकने की आवाज सुनाई दे, कमरे का दरवाजा की चर्र-चर्र की ध्वनि के साथ धीरे-धीरे खुले और परदे के पीछे किसी की परछाई दिखाई पड़े। या फिर आप रात में सुनसान रोड़ में गाड़ी चला रहे हों और अचानक आपको बीचो बीच सड़क पर खड़ी एक औरत दिखाई पड़े..................
आमतौर पर कुछ ऐसे ही भयानक भयानक किस्से लोगों को डराने के काम आते हैं। बाहर बाजार में भय बेचा जा रहा है। स्टेशन पर लगे बुक स्टालों से लेकर सिनेमा हाॅल तक डर बिक रहा है। हमें डर लगता है हम जानते हैं। फिर भी हम डरने के लिए भूत प्रेत की कहानियों वाली किताबें खरीद कर पढ़ते है, हाॅरर मूवीस् देखने जाते हैं। भारत में आज भी सबसे ज्यादा भूतों का प्रकोप है। हर मुहल्ले से आपको भूतों का एक नया किस्सा मिल जाएगा। जितने लोग उतने प्रकार के भूत। किसी ने उल्टे पैर वाला भूत देखा तो किसी ने नाक के बल बोलने वाला भूत देखा है। समय के साथ भूतों की वैराइटी में भी परिवर्तन हो रहा है। पुराने समय में लोग नर भूतों को देखा करते थे। फिर बीच में खुले बाल, सफेद साड़ी में लिपटी नारी भूत नजर आने लगी। वर्तमान में बच्चों को भूत बना कर पेश किया जा रहा है। पिछले साल रामगोपाल वर्मा ने अपनी फिल्म भूत रिटर्नस् में ऐसा ही प्रयोग किया था।

भारत में भुतही आत्माओं के काफी किस्से प्रचलित हैं। कई इमारतें आधिकारिक रुप से हाॅन्टेड घोषित की जा चुकी हैं। इन्ही में से एक राजस्थान स्थित भानगढ़ के किले के बारे में एक बेहद रोचक किस्सा प्रचलित है, लोगों का मानना है कि बहुत समय पहले यहां रत्नावती नाम की बहुत सुंदर राजकुमारी रहती थी जिस पर काला जादू करने वाले तांत्रिक की कुदृष्टि थी। तांत्रिक ने अपने जादू से राजकुमारी को अपने वश में कर उसका शारीरिक शोषण किया। लेकिन एक दुर्घटना के चलते उस तांत्रिक की मृत्यु हो गई और आज भी उस तांत्रिक की आत्मा वहीं भटकती रहती है। तांत्रिक के श्राप के अनुसार वह स्थान कभी भी बस नहीं सकता। वहां रहने वाले लोगों की मृत्यु हो जाती है लेकिन उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती। और भी अनेक इमारतें तरह तरह की भ्रांतियों और अंधविश्वास के लिए चर्चित हैं।
एक शोध के अनुसार पता चलता है कि मनुष्य को सबसे ज्यादा भय रात के समय लगता है या फिर तब जब वह अकेला होता है। एक साधारण मनुष्य के जीवन में भय एक ऐसी चीज है जो उसका ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती। किसी को मौत से भय लगता है तो किसी को असफलता से ,किसी को सांप से तो किसी को बंदर से, आदि आदि तरह से लोगों को डर लगता है। इसी भय के साथ मनुष्य के मष्तिस्क में नकारत्मक ख्याल उपजने शुरू हो जाते हैं। साइंस के अनुसार भूत प्रेत और आत्माएं इंसानी दिमाग की ही उपज है। इंसान ने ही अपनी कल्पना के आधार पर भूत-प्रेतों को जन्म दिया है। इंसानो ने ही भूतों के आने-जाने का समय तय कर दिया उनके रहने का स्थान तय कर दिया। समय के साथ साथ भूतों ने इंसानी मस्तिष्क पर डेरा डालना शुरू कर दिया और आज इंसान अपने ही दिमाग की उपज से भयभीत होता रहता है। मनुष्य कौम अप्रत्याशित चीजों से सबसे अधिक भयभीत रहती है। वास्तविक समाज में नर मनुष्य सबसे ज्यादा क्रूर हैं हिंसक हैं इसलिए प्रायः उनका भूत नही गढ़ा जाता, स्त्री और बच्चे जिनके हिंसक होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते अधिकांशतः उन्ही को भूत बनाकर पेश किया जाता है और हम उनसे डरते हैं क्यों कि वह हमारे लिए अप्रत्याशित है। भय का पूरा मनोविज्ञान इसी वाक्यांश पर आधारित है ’’डर का कारण वही है, जो वास्तव में नही है’’।
धीरे-धीरे मीडिया ने भी भय को भुनाना शुरु कर दिया। फिल्म जगत के तमाम बुद्धिजीवियों ने भय बेंच-बेंच कर लाखों-करोड़ो कमाए। फिल्मों में खिड़कियों की धूम-धड़ाम, तेज हवा में जलती मोमबत्ती पकड़े औरत, परदे के पीछे परछाई, हवेली से आती घुंघरूओं की आवाज, बीचो बीच सड़क पर सफेद साड़ी में लिपटी खड़ी औरत आदि आदि के दृश्यों के माध्यम से भूतों को आकार देने की कोशिश की गई।   कहते है भय की भयावहता उसकी अधिकता के साथ क्षीण पड़ने लगती है। फलस्वरुप, समयोपरान्त लोगों ने प्रत्येक हाॅरर फिल्म में दिखाए जाने वाले इन्ही घिसे पिटे दृश्यों को देखकर डरना बंद कर दिया तो उन्हे दूसरे तरीकों से डराना शुरू कर दिया गया। जिन लोगों ने भूतों पर पूरी तरह काबू पा लिया गया है उनका खून चूसने के लिए नया हीरो ‘जांबीस’ जन्म ले चुका है। गो गोवा गाॅन के रिलीज के साथ ही भारत में भी जांबीस पदार्पण कर चुके हैं।
जैसे-जैसे लोगों ने पुराने किरदारों से डरना बंद कर दिया उन्हे डराने के लिए नए नए किरदार गढ़े जाने लगे। लोगों को सबसे ज्यादा भय नकारात्मकता से लगता है। अगर हम नकारात्मक सोचना बंद कर दें तो काफी हद तक भय से छुटकारा पाने में सक्षम हैं क्यों कि डर के आगे जीत है।

प्रशांत सिंह
9455879256

Saturday, July 20, 2013

दिल्ली एक अनुभव

अब तक दिल्ली के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। उन्ही सुने सुनाए वाक्यांशो के आधार पर मैंने अपने दिलों दिमाग में दिल्ली की एक इमेज़ बना ली थी जिसमें साफ-सुथरी और चैड़ी-चैड़ी रोडों पर चमचमाती बड़ी-बड़ी गाडि़यां, उंची उंची इमारतें, और विदेशी पर्यटक और और माॅर्डन लड़के-लड़कियां शामिल थे।
होश संभालने के बाद जब मैंने पहली बार जब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर कदम रखा तो एकबारगी लगा कि जो तस्वीर मैंने अपने जेहन में बसा रखी थी यह एकदम उसके उलट है। लेकिन चार फर्लांग आगे चलते ही मेट्रो स्टेशन के अंदर पहुंच कर यह मिथ्य झूठा साबित होने लगा। लेकिन नेहरु प्लेस जैसे सुप्रसिद्ध आई.टी. मार्केट के परिसर में फैली गंदगी न जाने क्या संदेश देना चाह रही थी। और दिलशाद गार्डेन के निकट सीमापुरी के इलाके की हालत देखें तो खुद को देल्ही एन.सी.आर. में खड़े होने पर शक पैदा हो जाएगा। खैर जो भी हो, पूरे भारत का समागम भी तो दिल्ली में ही है आखिर राजधानी जो ठहरी। लम्बी चैड़ी रोड़ों पर दिल्ली परिवहन की बेहतर बस सर्विस और बेहद तेज मेट्रो रेलगाड़ी वाकई काबिले तारीफ है। दिल्ली की सड़कों पर कई लोग तो बेहद सभ्य और परोपकारी दिखे लेकिन कुछ की हैवानियत भरी निगाहें किसी भी इज़्जत दार लड़की को असहज महसूस कराने के लिए काफी थीं। संयोग वश मेरा रोहिणी इलाके से भी गुजरना हुआ, जो कि पिछले साल हुए रेप कांड से चर्चा-ए-आम हो गया था।
    डी.एल.एफ. जैसे बिल्डरों की इमारतों में जाकर डेवलप्ड देल्ही की चकाचैंध स्पष्ट नज़र आती है। घूमना तो और भी कई जगह चाहता था लेकिन समय के अभाव के कारण इस आॅफिशियल ट्र्पि को टूरिस्ट ट्र्पि में नहीं बदल सका। इंडि़या गेट सरीखे ऐतिहासिक स्थलों को काफी दूर से ही बाॅय-बाॅय कर दिया। अगर ईश्वर ने मौका दिया तो जल्द ही दोबारा जा कर रेड फोर्ट, इंडि़या गेट, और अन्य तमाम जगहों को बेहद नजदीकी से जानना चाहूंगा। कुल मिला कर देल्ही एन.सी.आर. ने एक मिला जुला अनुभव प्रदान किया।

Friday, June 14, 2013

आलोचकों का सम्मान करें

          कहते हैं कि आलोचक तो सभी के होते हैं, चाहे वह अच्छा इंसान हो या बुरा। जो आलोचनाओं से डर गया वो समझो वो मर गया। वैसे आलोचनाएं किसी व्यक्ति विशेष का चरित्र नही बल्कि आलोचक की मानसिकता को दर्शाती हैं।
किसी मशहूर व्यक्ति ने सच ही कहा है कि जब आपके आलोचक पैदा होने लगे, लोग आपसे जलन और ईष्र्या महसूस करने लगें तब आप समझ जाइएगा कि आप सही दिशा में जा रहें हैं।
आलोचनाओं से भय से डर कर बैठने वाला व्यक्ति कभी भी तरक्की नहीं कर सकता। आलोचनाओं को अपनी कमजोरी नहीं बल्कि अपनी ताकत बनाइए। आलोचना करना अति आसान काम है, एक आलोचक किसी व्यक्ति की आलोचना करते समय अपनी सोच का दर्शाता है। आलोचनाएं उसका अपना निजी अनुभव होता है न कि पूरी कायनात की सोच।
यह जरुरी नहीं कि एक व्यक्ति सबके लिए एक जैसा ही हो। सबका अपना अपना नज़रिया होता है सबके अपने अपने उद्देश्य होतो हैं। कोई भी कभी भी आपका आलोचक बन सकता है कभी कभार तो आपके आलोचकों में आपके मित्र भी हो सकते है जिन्हें आप बेहद निजी मानते हुए उनसे आपने कभी भी इस तरह की उम्मीद न की हो।
खैर जमाना कलयुगी है आपके सामने मीठा बोलने बाले प्रशंसक भी कभी कभार आपकी पीठ पीछे खंजर घोपने को आतुर रहते हैं। भला ऐसे प्रशंसकों का भी क्या फायदा। इनसे लाख भले तो खुले आम आलोचना करने व्यक्ति हैं, कम से कम वे ललकार कर तो लड़ते हैं। आप सबसे अनुरोध है कि आप अपने आलोचकों का सम्मान करें, क्यो कि वे आपको सफलता की ओर बढ़ने के लिए उकसाते रहते हैं।
यूं तो आलोचक सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन के भी हैं, और कल जो वो थे आज भी वही हैं।आलोचना तो गांधी जी की भी होती है लेकिन फिर भी हम अपनी जेब में गांधी नोट रखने को मजबूर हैं। आलोचनाएं तो उनकी बहुत हुईं मगर नुकसान किसका हुआ ?
यूं तो मेरे कई आलोचक पहले भी थे लेकिन ,मित्रों आज मैं अपने पहले सर्टिफाइड़ आलोचक से रूबरू हुआ। मै उन भाई साब कोटि कोटि धन्यवाद देना चाहूंगा, खास तौर पर उनसे आमने सामने की मुलाकात पर।
मेरे ख्याल से तो आलोचनाएं सफलता की सूत्रधार हैं। दुनिया एक जंगल है और यहां अनेक तरह के प्राणी विचरण करते हैं और यह जरुरी नहीं कि आप सबकी आपेक्षओं पर खरे उतर सकें। शेर तो अकेला ही दहाड़ता रहता है और कुत्ते तो भौंकते ही रहते हैं(न चाह कर भी यह लाइन लिखने को मजबूर हूं)।
.............................................................................................................................................................................................................खैर, लिखना तो और भी कुछ चाहता लेकिन लेख में निष्पक्षपूर्ण बनाने के फेर में आगे नहीं लिख सका।
यहां पर मै कुछ लाइनें काव्य के रुप में लिख रहा हूं हो सके तो आप जरुर पढि़ए।


‘‘इस जहां को जहन्नुम बनाने के फेर में ।
किसी के बुरे हो गए,तो किसी के प्रिये हो गए।।
आसमान तो एक है ,
कोई सौ फुट पर उड़ता है।
तो कोई सौ मील पर।।
धरती तो एक है ,
कोई खरगोश चाल चलता है।
तो कोई कछुआ चाल।।
अगर किसी को ताकत का गरूर है,
तो वह उसके दिमाग का फितूर है।
क्यों कि हाथी भी चींटी के आगे मजबूर है।।’’

Monday, May 27, 2013

100 नं.

एक बाइक सवार भाईसाब टेम्पो की टक्कर से चुटहिल हो गए। टेम्पो तो मौके से भाग निकला लेकिन भाई साब ने 100 नं. डायल कर दिया। करीब 10 मिनट बाद भी कोई नही आया तो उन सज्जन ने फिर अपने मोबाईल से 100 नं. दबा दिया इसी तरह आधे घण्टे के अंदर उन्होने चार बार फोन कर डाला तब जाकर कहीं दो पुलिस वाले बाइक से आते दिखे या यूं कहें वारदात के करीब 35-40 मिनट बाद। आते ही उन्होने बाइक सवार के हालचाल जाने और पूछा ‘कहां से आ रहे हो ?’ बाइक सवार ने बताया ‘फतेहपुर‘ से, तब तक दूसरा पुलिस कर्मी तपाक से बोल उठा भइया ‘‘ये फतेहपुर नही कानपुर है यहां टेम्पो वाले ऐसे ही चलते हैं, इसमें कौन सी नई बात, ये तो रोज काम है’’। और जाते जाते नसीहत दे गए कि अगर कानपुर आते जाते हो तो यहां के हिसाब से गाड़ी चलाना सीख लो।
वाह भाई वाह!!!

Wednesday, May 22, 2013

 आज यूं ही बैठे सड़क की तरफ निहार रह था , कि अचानक नज़र सड़क किनारे खडे सात-आठ बच्चों के झुण्ड़ पर पड़ी जो वहां से गुजर रही सेना की गाडि़यों से हाथ हिला कर टाटा कर रहे थे। उन गाडि़यों में बैठे जवानों में से कुछ गाडि़यों के जवान तो बच्चो के अभिवादन को स्वीकार कर रहे थे और कुछ तो उन बच्चों की तरफ निहारना भी मुनासिब नहीं समझ रहे थे। जवानों से प्रतिउत्तर पा कर बच्चों का उत्साह दोगुना हो जाता और पीछे से आने वाली दूसरी गाड़ी के जवानों से वे और जोर-शोर के साथ टाटा करते। ऐसी चटख धूप में जवानों की प्रतिक्रिया बच्चों के लिए ग्लूकाॅन-डी का काम कर रही थी। करीब दस मिनट तक सेना की गाडि़यों का काफिला गुजरता रहा और बच्चों का यही क्रम जारी रहा। यह दृश्य देख कर बचपन की स्मृतियां  आखों के सामने झूलने लगी।

Thursday, April 25, 2013

मुसलमान को मुसलमान ही रहने दीजिए


मुसलमान! मुसलमान! मुसलमान! सुन सुन कर भेजा पक गया है कोई भी कभी भी कुछ भी बकने लगता है। आखिर मुसलमान दर्शाना क्या चाहते है। वे क्यों हर जगह मुसलमान होने के फायदे ढूंढने लगते हैं। वे क्यों इस मुसलमान शब्द को घृणित बनाना चाहते हैं। वे क्यों तुष्टीकरण की राजनीति कर रहे हैं। सिर्फ कुछ दूषित लोगों की वजह से पूरी कौम बदनाम हो रही है। वे कुछ लोग समाज में नफरत पैदा कर रहे हैं। वे खुद तो मौज कर रहे हैं और समाज में जहर घोल रहे हैं। क्यों वे खुद के गुनाहों पर सफेद चादर ओढ़ कर दूसरों को बेनकाब कर रहे हैं।
क्या वे भारत के अंदर एक नया पाकिस्तान गढ़ रहे है। आखिर उन्हे ऐसा करने से क्या फायदा मिलेगा। कोई भड़काउ भाषण दे रहा तो कोई मोदी की टांग खींच रहा । अरे भई, आपको मोदी नही पसंद है आप वोट मत दीजिए। लोगों को अपना फैसला खुद करने दीजिए। आप क्यों लोगों को मैनिपुलेट कर रहे हैं। अगर आपको इतना ही सच उजागर करने का शौक है तो आप खुद को भी पहले बेनकाब कीजिए।
आप क्यों लोगों के जेहन में मुसलमान नामक शब्द से नफरत पैदा करना चाहते हैं। क्यांे पूरी दुनिया मुसलमानों के नाम से खौफ खाती है। क्यों आप मुसलमानों को आतंक का पर्याय साबित करने पर तुले हुए हैं। आप को अमरीका में क्यों शक भरी निगाहों से देखा जाता है। आप खुद को क्यों दुनिया की सबसे निर्मम कौम का खिताब दिलाना चाहते हैं। क्यों दुनिया के 90 फीसदी आतंकवादी संगठनो से आपका ताल्लुक पाया जाता है। जेहाद के नाम पर आप इंसानियत क्यों भूल जाते हैं। आखिर क्या वजह है इसकी।
क्यों आप सभी को अपना दुश्मन मानते हैं। क्यो दुनिया में आपका कोई दोस्त नही है। ऐसी क्या कमी है आप में। क्यो आपके दिमाग में शैतानी चालें चलती रहती हैं। क्यों आपने पूरे विश्व में आतंक फैलाने का जिम्मा ले रखा है। आखिर आतंक की उपज कहां से हुई। क्यों आप को मार काट में मजा आता है। यह प्रथा एक पल की नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही है। क्यों मुस्लिम शासक भारत को लूट ले गए थे। क्यों उन्होने खुशहाल हिंदुस्तान में आतंक मचाया थे। क्यों उन्होने भारतीयों पर बर्बरता और क्ररता दिखाई थे। क्यों वे छल और कपट से भारतीय राजाओं से उनके राज्य छीन लेते थे। क्यों वे लोगों से जबरन धर्म परिवर्तन कराते थे।
आज भी क्यों आपको दुनिया में सबसे कट्टर माना जाता है। आप के लिए जान देना और जान लेना बच्चों का खेल है। जरा जरा सी बात पर आप क्यों उत्तेजित हो जाते हैं। क्यो आपके त्योहारों में हिंसा भड़कती है। और क्यों आप दूसरों के चैन ओ सुकून पर खलल डालते हैं। दूसरों की हंसी खुशी आपसे बर्दाश्त क्यों नही होती। क्यों आप अपने ही भाई बन्धुओं आम लोगो की तरह रहने नहीं देते। आज भी अमरीका जैसे देशों में कोई भी आतंकवादी घटना होती है तो वहां रहने वाले  निर्दोष मुस्लिम भी घरों में अपराधियों की भांति दुबक जाते हैं। जब भी कहीं भी किसी आतंकी हमले या साजिश में किसी मुसलमान का नाम आता है तो पूरी मुस्लिम कौम को अपराधत्व का बोझ महसूस होता है।

खोंट आप में नही आपकी मानसिकता में है। कमीं आप में नहीं आपकी सोंच में है। जरूरत हुलिया बदलने की नहीं बल्कि अपने विचारों को बदलने की है। जिस दिन मुसलमान इस मानसिकता से उपर उठ कर देखेंगे निश्चित ही समाज में एक नई बयार आएगी। मात्र कुछ फीसदी लोगों की वजह से सभी को जलील होना पड़ता है। भविष्य में मुसलमानों को कोई और संज्ञा न मिले इसलिए अभी भी वक्त है मुसलमान को मुसलमान ही रहने दीजिए। मेरा यह लेख भले ही कुछ लोगों को बनावटी या फिर निजी विचारों से ओत-प्रोत लग सकता है। लेकिन इसका मतलब ये नही कि इसमें दिए तथ्यों से दरकिनार किया जा सके।

Sunday, March 24, 2013

‘खलनायक’ नही ‘नायक’ हूं मैं।


12 मार्च 1993, मुंबई में सिलसिलेवार 12 बम ब्लास्ट। बेहद खौफनाक मंजर, 250 से भी ज्यादा लोग मारे गए,700 से भी ज्यादा घायल हुए। इन सबसे अनजान एक फिल्म स्टार विदेश में अपनी फिल्म की शूटिंग में व्यस्त था। ब्लास्ट की खबर आग से भी तेज तरीके से फैली, फैलते-फैलते विदेश में संजय दत्त के कानों तक भी पहुंची। वह घबरा गया। उसने अपने करीबी दोस्त को फोन किया और अपने घर में रखी एक एके-56 और पिस्टल को कहीं दूर ले जाकर नष्ट करने को कहता है। दोस्त ने ठीक वैसा ही किया। 19 अप्रैल को संजय दत्त शूटिंग पूरी कर के वापस लौटते हैं और उन्हे एयरपोर्ट से ही अरेस्ट कर लिया जाता है। उन पर मुकदमा चलता है। बम ब्लास्ट के आरोपों से बरी हो जाते हैं लेकिन अवैध हथियार रखने के दोषी पाए जाते हैं और आम्र्स एक्ट के तहत उन्हे छै साल की सजा सुनाई जाती है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में कम कर के पांच वर्ष सश्रम कारावास की सजा  में तब्दील कर देता है।
मंबई हमले के 20 साल बाद 21 मार्च 2103 को जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आता है, अचानक से फिल्मी दुनिया में हलचल मच जाती है। बालीवुड थम जाता है। संजय के प्रशंसक निराश हो जाते हैं। भारत के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार होता है जब लोग किसी आतंकवादी हमले या किसी आतंकी संगठन से जाने-अनजाने ताल्लुक रखने वाले शख्स के प्रति इतनी नरमी बरतते हैं। भारत की जनता का एक बड़ा वर्ग आज संजय दत्त के साथ खड़ा है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संजय ने खुद यह बात कबूल की है कि उन्हे हथियार खुद अबू सलेम और याकूब मेमन देने आए थे। बतौर संजय दत्त का कहना है कि उन्हे यह हथियार धोखे से दिए गए। उनका कहना है कि अयोध्या राम मंदिर निर्माण मसले में जब हिंसा भड़की थी तब उनके पिता कांग्रेस एम.पी. और मिनिस्टर सुनील दत्त की कार पर कातिलाना हमला हुआ था और लगातार धमकियां भी मिल रही थीं। इस वजह से वह खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे थे और बतौर संजय दत्त उन्होने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए पुलिस सिक्योरिटी की मांग भी की थी जो कि उन्हे मुहैया नहीं कराई गई थी। इस वजह से वे काफी निराश हो गए थे और अपनी परेशानी को फिल्म निर्माता निर्देशक समीर हिंगोरा से बताई। हिंगोरा ने ही उन्हे अपने पास हथियार रखने की सलाह दी और मुहैया भी कराए। कहा जाता है कि समीर हिंगोरा के अंडरवल्र्ड के लोगो से संबंध थे। 
बालीवुड का अंडरवल्र्ड से रिश्ता बहुत पुराना रहा है। समय समय पर कई नाम सामने आते रहे हैं पर वे लोग अपनी लंबी पहुंच और बड़े ओहदे के कारण कानून की पकड़ से बचते रहे हैं। अक्सर बड़ी हस्तियां अपने पाॅवर का इस्तेमाल कर बचते रहे हैं। आज संजय दत्त को होने पर एक बड़ा जनसमूह, बड़ी-बड़ी बालीवुड हस्तियां और दिग्गज राजनेता भी उनकी सजा माफ करने के पक्ष में हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने भी महाराष्ट्र के राज्यपाल को पत्र लिखकर सजा माफ करने की अपील की है। काटजू के ऐसा करने पर दत्त के पूर्व वकील महेश जेठमलानी ने गहरी आपत्ति जताई है। वहीं समाज सेवी अन्ना हजारे का कहना है कि संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट ने बहुत कम सजा दी है। और उन्हे सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करना चाहिए।
वास्तव मंे क्या संजय दत्त को सजा देने में सतर्कता बरती गई? अगर यहां पर उनकी जगह कोई साधरण आदमी होत तो उसे बतौर आतंकवादी कह कर फंसाना मुंबई पुलिस के लिए और आसान हो जाता। और यह मुनासिब था कि उसे फांसी या उम्रकैद की सजा हो सकती थी। इस मामले में दत्त 18 माह कारावास की सजा पहले ही काट चुके हैं,लेकिन इस बीस साल के दौरान वह न जाने कितने बार घुट-घुट कर मरे होंगे। आज जब संजय का कैरियर बुलंदियों पर है तब इस तरह की सजा बेहद दुखदायी है अगर इस बार दत्त जेल गए तो साढे़ तीन साल बाद उनके लिए फिल्मी दुनिया में फिर से पैर टिका पाना आसान नही होगा। इन साढ़े तीन साल के अंतराल में उनके बच्चे बिना बाप के साये में होश संभाल लेंगे और क्या बाद में जब संजय घर आएंगे तो क्या वे अपने बच्चों से नजरे मिला पाएंगे? पहले ही एक बार भरे पूरे परिवार के बिखरने का दंश झेल चुके संजू बाबा ने बड़ी मुश्किल से ही दोबारा पूरी निष्ठा, मेहनत, और नेक कार्यों के बलबूते एक बार फिर भरे-पूरे बगीचे सरीखा खुशहाल परिवार तैयार किया था। अब दोबारा उसे बिखरते देखने का दंश शायद ही इस पूरी कायनात में कोई झेल पाए।
क्या उन्हे नादानी मंे हुई गलती की सजा की इतनी भारी भरकम कीमत अदा करनी होगी? क्या उन्हे अब तक काटी गई सजा पर ही माफ नही किया जा सकता। जाने अनजाने नायक से खलनायक बने संजू बाबा अपली खलनायकी की छवि से उबरते हुए आज एक बेहतरीन नायक के तौर पर दुनिया के सामने हैं। इसी तरह एच.आई.वी से ग्रसित समीर हिंगोरा को अदालत अब तक काटी गई सजा पर ही छोड़ दिया। भारत एक लोकतांत्रिक देश है, कानून लोकतंत्र से है और लोकतंत्र कानून से है। यहां पर कानून ने अपना फैसला सुना दिया है लेकिन लोकतंत्र को यह मंजूर नही है। लोकतंत्र ने जब संजू बाबा को माफ करने का फैसला ले लिया है तो कानून को भी लोकतंत्र के इ़च्छा को संज्ञान मे लेते हुए अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। अब खुद संजय दत्त के पास यही दो शब्द बचे होंगे ‘‘खलनायक नहीं नायक हंू मैं’’ ।

प्रशांत सिंह
कानपुर
9455879256

Wednesday, March 6, 2013

राहुल गांधी-वादों के शहजादे


राहुल गांधी नामक व्यक्ति से तो आप भली भांति परिचित ही होंगे। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो भारत सरकार के सबसे शक्तिशाली लोगों में दूसरे नम्बर का दर्जा रखता हो। जी हां हम उसी राहुल गांधी की बात कर रहे हैं जो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के इकलौते बेटे है और उनके प्रशंसकों की माने तो आने वाले 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के सबसे तगड़े दावेदार।
अभी हाल में ही राहुल को कांग्रेस पार्टी का नेशनल वाॅइस प्रेसीडेंट बनाया गया है। पिछले एक दशक में मनमोहन सिंह की नाकामी को देखते हुए यह कह पाना बड़ा ही मुश्किल है कि कांग्रेस 2014 का चुनाव मनमोहन के भरोसे लडे़गी। ऐसे में कांग्रेस राहुल गांधी को पी. एम. पद के लिए प्रोजेक्ट कर रही है। कांगे्रस को उम्मीद है कि शायद वह ही उसकी डूबती नैया को पार लगा दें।
भा. ज. पा. की ओर से पी.एम. पद के सबसे तगड़े उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को राहुल गांधी का सबसे कड़ा प्रतिस्पर्धी माना जा रहा है। दोनों के बीच में जमीन आसमान का अंतर है। जहां राहुल राजनीति में पैराशूट से उतारे गए नेता हैं वहीं मोदी एक-एक सीढ़ी चढ़ कर बुलंदियों पर पहुंचने वाले नेता हैं।
पिछले साल यू.पी. के विधान सभा चुनाव में राहुल गांधी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी फिर भी वे यू.पी. में अपनी सरकार बनाना तो दूर सम्मान जनक सीटें भी नहीं दिला पाए। उत्तर प्रदेश की कुल 403 सीटों में कांग्रेस मात्र 28 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी। वहीं दूसरी ओर मोदी ने गुजरात विधानसभा चुनाव में अकेले अपनी दम पर लगातार तीसरी बार अपनी सरकार पूर्ण बहुमत से बनाने में कामयाब हो गए। मोदी की पार्टी को गुजरात की कुल 182 में से 116 सीटें प्राप्त हुई।
राहुल गांधी वह इंसान हैं जो देश की भोली भाली और गरीब जनता को अपना निशाना बनाते हैं। उनसे झूठे वादे करते हैं। दलित जनों के घर खाना खाने का स्वांग रचते हैं। अपने विदेशी दोस्तों के सामने देश की भोली भाली जनता का मजाक उड़ाते हैं उसे मूर्ख  करार देते हैं। यू.पी.-बिहार की जनता को भिखमंगा बताते हैं। और चुनावों के समय बड़े-बड़े वादे करते हैं लेकिन पूरे कभी नहीं करते है।
और आपकी सरकार के अनुसार रू.26/व्यक्ति गांव और रू.32/व्यक्ति शहर में कमाने वाला गरीब नहीं हो सकता। यानि कि जिंदा रहने के लिए इतने रूपए काफी हैं। फाइव स्टार होटलों में खाने वाले और महलनुमा बड़े-बडे़ बंगलों में रहने वाले और बड़ी-बड़ी कारों में चलने वाले लागों का इतना छोटा दिल देखकर वाकई शर्म आती है। अरे भाई राहुल साहब सिर्फ गरीब दलितों के घर खाना खाने से आप गरीबों का दर्द नहीं समझोगे अगर वास्तव में आपको गरीबी की परिभाषा समझनी है तो 32 रूपए में गुजारा कर के दिखाइए।
और एक बार फिर जब लोक सभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं राहुल के वादों की लिस्ट में इज़ाफा हो रहा है। राहुल कह रहे हैं कि अगर उन्हे अगली बार मौका मिला तो फलां-फलां कार्य वह अगली सरकार में पूरा करेंगे। अरे भई अगली सरकार का इंतजार क्यों है पिछले 10 वर्षों से आप ही की पार्टी सरकार चला रही है। और आपके प्रधानमंत्री की क्या मजाल जो वह आप की बात काटंे क्यों कि आप तो ठहरे पार्टी के युवराज। फिर अभी तक आपने जनता के लिए कुछ नहीं सोचा खैर अभी भी आम चुनावों में लगभग एक साल का समय है फिर अभी ही कुछ साबित कर के दिखा दीजिए।
वैसे जनता का मिजाज देखकर यह साफ है कि वह आपकी पार्टी को दोबारा मौका तो दूर आॅप्शन तक के लिए मुनासिब नहीं समझेगी। अब यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि राहुल के वादों की खिवैया कांग्रेस की नैया पार लगा पाती है कि नहीं।