Tuesday, December 30, 2014

धर्म के ठेकेदारों को खत्म करें


ज-कल 'पीके' फिल्म को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। कुछ लोग इसे हिंदू विरोधी भी बता रहे हैं तो कुछ इसकी सराहना भी कर रहे हैं। दरअसल बात विरोध या सराहना की नहीं है। भारत में धर्म और आस्था के नाम पर पाखंड की जड़ें इतनी गहराई तक समाई हुई हैं कि तने पर जरा सी चोट मात्र पर पेड़ तो तो जस का तस खड़ा रहता है, लेकिन पत्तों में गडग़ड़ाहट पैदा हो जाती हैं। हालांकि इस मुद्दे को बेवजह हवा दी जा रही है। 

दुनिया भर में मौजूद प्रत्येक धर्म कहता है कि ईश्वर एक है। जब ईश्वर एक है तो धर्म अनेक क्यों? भारत में धर्म के नाम पर लोगों की दुकानें खूब फल-फूल रही हैं। धर्म को लेकर सबके अपने अलग-अलग मायने हैं। सबकी अपनी मान्यताएं हैं और सभी धर्म और भगवान को अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं। कोई भगवान के नाम पर रोजी-रोटी कमा रहा है तो कोई जाति-धर्म के माध्यम से अपनी राजनीति चमका रहा है। लोग धर्म को व्यापार का जरिया बना रहे हैं। देश में भगवान के नाम पर लूटने वालों के कारनामे किसी से छिपे नहीं हैं। जाहिर है कि हम सबका मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च जाने के पीछे एक स्वार्थ निहित होता है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस भगवान से हम दोनों हाथ फैलाकर हमेशा कुछ न कुछ मांगते रहते हैं, उनको ही बेचारा समझ चंद सिक्के या एक अदद सा नोट दान-पात्र के हवाले कर देते हैं। वहीं चौराहे पर एक भीख मांगते लाचार को देख मुंह बिचका कर चल देते हैं।
सर से लेकर पांव तक हम मानते हैं कि भगवान ने इंसान की रचना की, लेकिन आज वही इंसान भगवान की रचना कर रहा है। इससे बड़ी विध्वंसक बात कुछ और हो ही नहीं सकती है। वास्तव में धर्म की परिभाषा से सभी अनजान हैं। धर्म के नाम पर आए दिन नए-नए पाखंड रचे जाते हैं। दुनिया भर में धर्म के नाम पर इंसान ही भगवान का सौदा करने पर आमदा है। गली-गली, चौराहे-चौराहे पर भगवान बिकाऊ हैं। भगवान और इंसान के बीच बिचौलियों का कब्जा हो गया है। जब-जब हम पर अंधविश्वास हावी होता है हम बिचौलियों का सहारा लेते हैं। धर्म के नाम पर दुकानें चल रही हैं। आसाराम, रामपाल इस बात के उदाहरण हैं। अगर हमको-आपको भगवान तक सीधा पहुंचना है तो धर्म के इन ठेकेदारों को खत्म करना होगा। 

Wednesday, December 24, 2014

प्रधान सेवक जी, जनता जवाब मांगे..

                               मोदी की हालत पीआर कंपनी के एजेंट सी हो गई है

ज कल दुनिया में हो हल्ला मचा हुआ है। एक ओर जहां दुनिया आतंकवाद से बिलख रही है वहीं भारत धर्मवाद से तड़प रहा है। अभी ऊबर कांड का जिन्न शांत नहीं हो पाया था कि देश में धर्मांतरण का मुद्दा बहस का मुद्दा बन गया। अचानक उपजे इस 'घर-वापसी' कार्यक्रम को लेकर जहां एक ओर विपक्षी दलों के नेता सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी बहुत कुछ बयां कर जाती है। इस पूरे प्रकरण पर मोदी ने शुरू से लेकर अब तक कोई सार्वजनिक खंडन नहीं किया है। इस शोर-शराबे के बीच सवा सौ करोड़ लोग मोदी को ताक रहे हैं लेकिन मोदी बगलें झांकते नजर आ रहे हैं। देश में धर्म के नाम पर हो रहे तांडव पर हिंदुस्तान की आवाम को जब मोदी की सख्त जरूरत है तब मोदी की ये खामोशी समझ से परे है। आम चुनावों के पहले रैलियों-मंचों से दहाड़ते मोदी के रूप में जनता को एक ऐसा शख्स नजर आ रहा था जो जाति, धर्म इत्यादि से परे विकास, एकजुटता, भाईचारे की बात कर रहा था। दशकों से चली आ रही जाति -धर्म की सियासत से ऊब चुके लोगों को मोदी में नई किरण दिखाई दे रही थी। ऊंचे- ऊंचे मंचों से माइक पर गरजते मोदी ने जनता को भरोसा दिलाया था कि वह सुशासन को देश के एजेंडे पर लाकर रख देंगे। लेकिन समय के साथ चुनाव से पहले किए गए सारे वादे कदम-दर-कदम खोखले साबित होते जा रहे हैं। चुनाव के पहले करोड़ों लोगों के लिए सुपरमैन का अवतार बन चुके मोदी की दशा इस समय एक पीआर कंपनी के एजेंट सी हो गई है। जो देश विदेश में घूम-घूम कर 'भारत ब्रांड' के लिए बिजनेस जुटा रहा है। मोदी के हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपते समय जनता ने जिस 'सियास' से मुक्त होने का सपना देखा था, आज उन्हीं मोदी के प्रधानमंत्री रहते हुए देश में धर्मांतरण जैसा 'कृत्य' खुलेआम हो रहा है। सरकार की सह पर आरएसएस और विहिप देशभर में तथाकथित घर वापसी को सरेआम अंजाम दे रहे हैं। मोदी के इस छोटे से शासन काल में ही  'लव जिहाद', 'बहू बनाओ-बेटी बचा' और घर वापसी जैसे मामलों की फेहरिस्त मोदी को कठघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। मंत्रियों-सांसदों की भड़काऊ बयानबाजी से त्रस्त जनता को अब सिर्फ  देश के प्रधानमंत्री के जवाब का इंतजार है। ऐन मौके पर उनकी खामोशी अखरती है। 

Thursday, December 11, 2014

नियम-कानून नहीं मानसिकता बदलनी जरूरी है

आज से ठीक दो साल पहले 16 दिसंबर 2012 की रात की उस खौफनाक वारदात को शायद ही कोई भूला हो। चलती बस में मेडिकल की छात्रा से दुष्कर्म की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। हादसे के बाद गली मुहल्ले से लेकर संसद तक भूचाल आ गया था। महिला सुरक्षा को लेकर तमाम तरह के सवाल खड़े हुए। संसद से ही उनके समाधान भी खोज लिए गए। लेकिन उनके सड़कों पर आने की परवाह किसी को नहीं थी। लोगों ने बढ़-चढ़ कर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। ऐसा लग रहा था मानों रेप दरिंदों ने नहीं बल्कि सरकार ने किया हो। कड़ाके की सर्दी में पुलिस की लाठियों तथा पानी की बौछारों की चिंता न करते हुए हजारों की संख्या में लोग आरोपियों को सजा दिलाने दिल्ली की सड़कों पर उतरे। जगह-जगह कैंडल मार्च का अयोजन किया गया। सरकार ने प्रदर्शन कारियों की मांगों को संज्ञान में लिया। आज दो साल बाद फिर दिल्ली की सड़कों पर रेप की घटना ने तूल पकड़ा। निर्भया कांड के बाद नियम बदले, कानून बदला, सरकार बदली। और अब सवाल यह है कि लोग कितना बदले? वह लोग कितना बदले जो 2 साल पहले इंसाफ का मुखौटा पहन न्याय की मांग कर रहे थे। एक सवाल है उन सबसे जो लोग ठीक 2 साल पहले सड़कों पर पुलिस की लाठियों की परवाह न करते हुए, सड़कों पर मोमबत्ती लेकर घूम रहे थे, वह कितना बदले? क्या उन्होंने सड़क पर चलती लड़कियों/स्त्रियों को घूरना बंद कर दिया है। शाम को स्कूल-कॉलेज,कोचिंग अथवा ऑफिस से घर लौट रही लड़कियों पर फब्तियां कसना बंद कर दिया है? दिन भर शराफत का चोला पहन कर घूमने वाले लोग अंदर से कितने नंगे हैं इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि निर्भया कांड के दौरान 5 आरोपी बनाम पूरा देश था, लेकिन देश में महिलाएं अब भी सुरक्षित नहीं। घिनौनी वारदातों को अंजाम देने वाले दरिंदे आसमान से नहीं उतरते,इतर वह हम सबके बीच से ही होते हैं। इसके लिए  दोषी न सरकार है न कानून। दोषी हमारा समाज है। हम हैं। बस, टैक्सी बैन करने से कुछ नहीं होने वाला। अगर होता तो निर्भया कांड के बाद ऊबर कांड का अस्तित्व ही नहीं होता। अगर कुछ बदलना है तो हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। यह भारतीय समाज ही है जहा पैदा होते ही बेटों को नकली तमंचा और बेटी को गुडिय़ा पकड़ाई जाती है।

Wednesday, December 10, 2014

खयालों में गुम


(जनसत्ता में 12 दिसंबर 2014 को प्रकाशित असंपादित लेख।जनसत्ता की वेबसाईट पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें अथवा जनसत्ता के ई—पेपर में पढ़ने के यहां क्लिक करें )

भी-कभी सड़क पर चलते-चलते खयाल आता है और खयालों में ही पूरा महल खड़ा हो जाता है। उन खयालों में इतना डूब जाता हूं कि आगे की सुध ही नहीं रहती। असली मंजिल भूल कर धरातल तक पहुंचने का सिलसिला शुरू ही होता है कि व्यवस्था की शक्ल में पत्थर से टकरा कर एक झटके में खयालों का वह महल चूर हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? यह समझने के लिए निगाहें किसी को खोजती फिरती हैं। फिर खयाल आता है कि मेरी ही तरह अन्य भी इस नीरस भौतिकता में जी रहे हैं। कई दफा उचित व्यक्ति के पास पहुंच कर भी ठहर जाता हूं। फिर अपने खयालों का पुलिंदा अंदर ही समेट कर छटपटा कर रह जाता हूं। आखिर हम लोग क्यों जी रहे हैं? एक बार यह सवाल सुन कर कोई भी कुछ क्षण के लिए सोचने को मजबूर हो सकता है। उस रात लेटे-लेटे मैंने खुद से यह सवाल किया तो जवाब ढूंढ़ते हुए रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला।
भौतिकता के भय में अवसाद से जूझने का सिलसिला शुरू हो गया। न चाहते हुए भी जवाब का खयाल छोड़ कर भौतिकता की अंधी भाग-दौड़ में शामिल होने की तैयारी करने लगा। पेट की भूख और जीने की जरूरत ने इंसान से उसका समय चुरा लिया है। खुद के बारे में उसे सोचने का वक्त नहीं मिल पाता। जिंदगी भर कोई भाग-भाग कर घर पर अपने पीछे पल रहे प्राणियों के लिए दाने-पानी का इंतजाम करता है तो किसी के पास सालों-साल या फिर दशकों के दाने-पानी का इंतजाम होते हुए भी वह न जाने किस मंजिल पर पहुंचने की होड़ में है। इस सवाल का जवाब शायद उनके पास भी नहीं होगा।
दिन भर की जद्दोजहद के बाद शाम को घर लौटते समय फिर से खयालों का सिलसिला शुरू हो जाता है।
यह सिलसिला यों ही भौतिकता से शुरू होकर भौतिकता पर आकर ठहर जाता है। निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले ही फिर सवालों के घेरे में उलझ जाता हूं। जिंदगी घड़ी की सुइयों में सिमट गई है, जिनके इशारे पर दिन भर चकरघिन्नी बने फिरते हैं और बेसब्री से वक्त के ठहरने का इंतजार करते हैं। रोजाना बिस्तर पर जाकर एकबारगी वक्त के ठहर जाने का अहसास होता है। लेकिन अहसास के हकीकत में बदलने से पहले ही वह महज मृग-मरीचिका साबित होता है। अगली सुबह हम फिर घड़ी की सुइयों के इशारे पर नाचने के लिए खुद को तैयार करने के लिए जुट जाते हैं। इस बीच जो नींद आती है, उसे नींद का नाम दिया जाए या फिर अगले दिन के लिए खुद को फिर से तैयार करने का जरूरी खुराक। इस फेर में अक्सर हम असल जिंदगी के जरूरी खुराक लेना भूल जाते हैं। जिंदगी के कुछ पन्ने पलट जाने के बाद हमें इस बात का आभास होता है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस भागमभाग-सी जिंदगी के बीच हम न जाने किससे आगे जाने की होड़ में रहते हैं और पीछे छूट जाता है हमारा सुख-चैन और यथार्थ। थक-हार कर जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो बचपन से लेकर पचपन तक हमने जो सपने संजोए थे, सभी बिखरे हुए नजर आते हैं। चाह कर भी हम भागना नहीं छोड़ पाते, क्योंकि पैदा होते ही हमें चलना सिखाया जाने लगता है। जिंदगी की इस भाग-दौड़ में हम अनेक मुकाम हासिल करके भी न जाने खुद को, रिश्तों, मूल्यों और यहां तक कि अपने गांव और देश को भी कितना पीछे छोड़ आते हैं। लेकिन इतना आगे आकर भी हम कहीं नहीं पहुंच पाते हैं। जिंदगी के अंतिम दिनों में सुकून ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। हासिल कुछ नहीं! ज्यादा से ज्यादा नए किरदार में जिंदगी का वही सिलसिला!
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Thursday, November 6, 2014

कमरे से बाहर आना होगा कानून को


पिछले दिनों ईरान में एक 26 वर्षीय युवती रेहाना जब्बारी को एक अदालत के आदेश पर फांसी पर लटका दिया जाता है। उसका गुनाह मात्र इतना था कि उम्र के 19वें पड़ाव पर उसने बलात्कार का प्रयास करने वाले एक शख्स को चाकू घोंप कर मौत के घाट उतार दिया था। वह शख्स मुर्तजा अब्दोआली  सरबंदी ईरानी खुफिया विभाग में कार्यरत था। रेहाना को खुद की आबरू की हिफाजत की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी।

ईरानी अदालत ने दुर्दांत कानून का नमूना देते हुए रेहाना को फांसी पर लटका दिया। पिछले सात सालों से इस गुनाह की सजा काट रही रेहाना की कानून ने एक न सुनी। अंतराष्ट्रीय दबावों व विश्व भर के मानवाधिकार संगठनों के तमाम प्रयासों व सोशल मीडिया पर चल रहे कैंपेनों के बावजूद भी उसको बचाया नहीं जा सका। रेहाना की फांसी रोकने के लिए मानवाधिकार संगठनों ने मोर्चा खोला जिससे कुछ समय के लिए फांसी टाल दी गई थी। हालांकि रेहाना ने अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए न कोई दलील दी बल्कि न ही उसने कोर्ट में चीखना,चिल्लाना व गिड़गिड़ाना मुनासिब समझा। शायद उसे अपने देश के न्याय पर भरोसा था। 


रेहाना की फांसी के ठीक दो दिन बाद इस्लामिक इस्टेट ने एक कुर्दिश महिला का सिर कलम कर दिया था। संयोग से उसका नाम भी रेहाना था, उसने करीब 100 आईएस आतंकियों को मार गिराया था। उसके इस गुनाह की सजा आईएस ने उसका सर कलम कर के दी।  अगर इन दोनों मामलों में देखा जाए तो आईएस और ईरान के कानून में ज्यादा कोई फर्क  नजर नहीं आता। बस फर्क इतना है कि आईएस ने सजा देने में ज्यादा वक्त नहीं लिया जबकि ईरान को सजा देने में 7 साल लग गए। सरबंदी की हत्या के जुर्म में 2007 में गिरफ्तार रेहाना जब्बारी ने जेल से अपनी मां को संबोधित एक पत्र लिखा, जिसे उसकी फांसी के एक दिन बाद जारी किया गया । पत्र में लिखी गई बातें लोगों को रह—रह कर चुभती रहेंगी। अपने जीते जी उसने  इंसाफ की जो जंग शुरू की थी, उसकी जिम्मेदारी अब कौम के कंधों पर है।


इस पूरे वाकये को याद कर 2011 में आई पाकिस्तानी फिल्म बोल की धुंधली पड़ती यादें फिर से ताजा हो गईं। इस फिल्म में  पाकिस्तानी अदालत एक ऐसी लड़की को सजा-ए-मौत देती है जो अपने पिता के गुनाहों से आजिज आकर एक दिन उनकी हत्या कर देती है। पुत्र की चाहत की कामना करे वाले उसके पिता की चौदहवीं संतान लड़के और लड़की के बीच की होती है।  जिसके जवानी के दिनों में वह उसकी हत्या कर देता है। इस फिल्म ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया था। 

लाहौर की रहने वाली लड़की जुनैब पर उसके अपने पिता को मार डालने का आरोप होता है। जुनैब ने आज तक किसी भी अदालत में कोई बयान नहीं दिया। अंत में उसका मामला पाकिस्तान के वजीर-ए-आज़म के पास पहुँचता है। यह समझ कर कि उसने आजतक उसने अपने बचाव में कुछ नहीं कहा, इसलिए वह वाकई में आरोपी है, आज़म उसकी मौत की सजा पर मुहर लगा देते हैं। पर आखिर में फांसी के फंदा चूमने से पहले उसने मीडिया के सामने अपनी कहानी सुनाने की इच्छा व्यक्त की। इस कहानी में उसने पाकिस्तानी  औरतों पर हो रहे अत्याचारों और जुल्मों की वह दर्दनाक कथा बयां की,जो कि शायद इसके पहले कभी की गई हो। वह बिना किसी मलाल के फांसी के फंदे को चूम कर हमेशा के लिए सो गई, लेकिन पूरी दुनिया को गहरी नींद से जगा गई।


इन दोनों रील और रियल लाइफ के अदालती मामलों में मुस्लिम देशों के कानून की निर्जीविता की झलक साफ दिखलाई देती है। कानून कब तक अंधा न्याय करता रहेगा। लीक से हटकर कानून को पुन: संशोधित करने की जरूरत है। समय के साथ-साथ अपराधों की किस्मों में भी बदलाव हुआ है, मगर कानून पुराने ढर्रे पर अडिग है। कानून को बदलाव के लिए अदालती कमरे से बाहर निकल वास्तविकता को अपनाना होगा। नहीं तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब कानून और आईएस सरीखे संगठनों के बीच की खाई पट जाएगी। 

Monday, November 3, 2014

दावे नहीं दवा चाहिए साहेब

उत्तर प्रदेश सरकार लाख दावे कर ले, मगर प्रदेश में किसानों  की हालत जग-जाहिर है। गाहे-बगाहे किसानों के साथ अत्याचार की घटनाएं सामने आती रहती हैं।त्तर प्रदेश में किसानों की बदतरी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है पिछले दिनों एक किसान ने लोन की राशि न अदा कर पाने के कारण आत्महत्या कर ली। छह बीघे जमीन के मालिक अशोक कुमार ने करीब सात साल पहले किसान क्रेडिट कार्ड स्कीम के तहत बैंक से 50 हजार का लोन लिया था। न चुका पाने की हालत में जो बाद में बढ़ कर 95 हजार का हो गया। इसी तरह अशोक ने अन्य जगहों से भी लोन ले रखा था। लेकिन चुकाने में असमर्थ होने के कारण उसने मौत को गले लगाना ज्यादा मुनासिब समझा। इसी तरह कुछ दिनों पहले एक और मामला सामने आया था जिसमें 28 बीघे जमीन के मालिक गन्ना किसान राहुल कर्ज का बोझ नहीं सहन कर सका और मौत को गले लगा लिया। आकड़े उठाकर देखें तो किसानों की बदहाली को बयां करने वाली ऐसी अनेकों घटनाएं मिल जाएगी। जिसमे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की पीड़ा किसी से नहीं छुपी है। अगर फिर भी राज्य सरकार किसानों की बहाली का दावा कर रही है तो यह समझ से परे है।
आलम यह है कि सरकार योजनाएं बनाती है और धरा पर आते-आते इन योजनाओं की दम निकल जाती है। सारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। असल में योजनाए किसानों के लिए नहीं बल्कि सरकार से किसान के बीच बैठे माफियाओं के लिए बनती हैं। प्रदेश में अन्य राज्यों की अपेक्षा पर्याप्त कृषि भूमि होने के बावजूद भी यहां की सूरत बदहाल है। बड़ी-बड़ी महत्चकांछी योजनाएं बन कर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। सरकार ने सिंचाई संसाधनों की दुरस्तगी के लिए समर्सिबल बोरिंग के लिए अनुदान की व्यवस्था शुरू की थी। इस योजना का लाभ लेने के लिए किसानों को अधिकारियों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। जिसमें अनुदान से मिलने वाला आधा धन भ्रष्टाचार के नामे हो जाता है। बोरिंग के बाद बिजली कनेक्श मिल जाना भी बड़े भाग्य की बात होती है। स्थान के मुताबिक 1 लाख रुपए से लेकर 3 लाख तक की घूस देने के बावजूद भी किसानों को अधिकारियों के नखरे सहने पड़ते है।

भ्रष्टाचारगी का आलम यह है कि किसानों को बीज खरीदने से लेकर गल्ला बेंचने तक हर जगह भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। उन्नत बीज उपलब्ध कराने वाली सहकारी समितियां तय कीमत से डेढ़ से दो गुना ज्यादा कीमत वसूलती है। यही हाल उर्वरकों में भी है। नहर, बम्बा आदि में समय से पानी न आने पर किसानों को मंहगी दरों पर निजी ट्यूबवेल से सिंचाई करवानी पड़ती है। खून-पसीने की मेहनत के बााद जब फसल लहलहा कर होती है तो बाजार भाव देखकर किसानों का चेहरा खिलने के पहले ही मुरझा जाता। वहीं किसानों से समर्थन मूल्य पर गल्ला खरीदने का दावा करने वाली सरकार द्वारा निर्धारित सहकारी समितियां अनाज खरीदने से मना कर देती हैं। अगर खरीदती भी हैं तो किसानों को अपनी बारी का इंतजार करते-करते तीन-तीन दिन तक क्रय केंद्र के बाहर धूप-पानी में डेरा डाल कर पड़े रहना होता है। इन सबके बावजूद भी अगर गल्ला बिक गया तो भुगतान के समय निश्चित कोई न कोई बाधा या कम भुगतान करने की शिकायतें आम हैं। वहीं गन्ना किसानों के हालात पर चर्चा करें तो मौजूदा गणना के मुताबिक यूपी की चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का करीब 5000 करोड़ का बकाया है।

Sunday, November 2, 2014

श्रृद्धा पर भारी रसूख

प्रभु के दरबार में न कोई ऊंच-नीच होती है और न ही कोई छोटा-बड़ा होता है। ऐसा पुराणों में लिखा है और वह सिर्फ लिखा ही रहेगा। पिछले दिनों एक सज्जन ने इस बात को लेकर गहरा रोष व्यक्त किया था। उनकी बात में भी दम था और सच्चाई थी। लेकिन तब तक यह चर्चा का विषय नहीं था। लेकिन देश के सबसे धनी व्यक्ति मुकेश अंबानी और उनकी पत्नी के बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में पंहुचने के साथ इस मुद्दे ने तूल पकडऩा शुरू कर दिया।

देश-विदेश, सैकड़ो किलोमीटर से गंगा के पावन तट पर बसी पावन नगरी में भगवान काशी विश्वनाथ के दर्शन की कामना लिए चले आ रहे श्रृद्धालुओं को भगवान के दर से बिना दर्शन के ही लौटना पड़ा। 60 साल से चली आ रही आरती की परंपरा को एक झटके में टूट गई। जिसकी वजह बने मुकेश अंबानी और उनकी पत्नी नीता अंबानी। मिसेज अंबानी का जन्म दिन मनाने बनारस पहुंचे अंबानी परिवार के लिए भगवान को बेंच दिया गया। आखिर कब तक दिखावा करने वाले वीवीआईपीओं के लिए आम जनता को ठोकरें खानी पड़ेंगी। दुनिया की सारी सुख-सुविधाओं के साथ अब धर्म भी अमीरों का हो चला है।

पत्थर की मूर्ति का सौदा करते-करते आस्था भी बिकाऊ हो गई है। आलम यह है कि आपकी जेब में जितना माल, मंदिर में आपका उतना ही भौकाल। यह नजारा आम तौर हिंदू धर्म के अधिकतर मंदिरों में  देखने  को मिल जाता है। भगवान के दर पर खड़ा होकर  इंसान, इंसान से ही भगवान का सौदा कर रहा है। भगवान के रचे हुए इंसान का जमीर इतना गिर चुका होगा इसकी कल्पना भगवान ने इंसान को रचते वक्त भी नहीं की होगी।

जिस देश का प्रधनामंत्री खुद को चाय बेचने वाला बताता हो, उस देश में तो कम से ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। खास तौर पर मोदी के लोकसभा क्षेत्र में तो किसी ने ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी। लेकिन कल्पना और हकीकत इस बार एक दूसरे के विपरीत खड़े हैं। कुछ दिनों पहले मीडिया में एक खबर चली थी कि एक युवक को पासपोर्ट ऑफिस से परेशान किए जाने पर उसने मोदी को चिट्ठी लिखी थी। मोदी ने इस पर तुर्त कार्यवाई की थी, और युवक को अगले एक हफ्ते के अंदर ही पासपोर्ट जारी कर दिया गया था। तब ऐसा लगा मानो अच्छे दिन सच में आ गए हैं। लेकिन अंबानी के लिए साधुओं-श्रृद्धालुओं को मंदिर परिसर से भगा देना कहां से अच्छे दिनों की ओर संकेत करता है। जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी तक भी यह बात पंहुंची होगी। अब देखना यह है कि मोदी क्या कार्यवाई करते हैं? या यूं ही अमीरों के हाथों सत्ता का सौदा करते रहेंगे।

Thursday, October 2, 2014

मोदी, झाडू और गंदगी

      ड्रामा और हकीकत एक सिक्के के दो पहलू हैं।  आज दोनो ही सामने  आ गए। अपने आप को प्रधान सेवक बताने वाले मोदी जी ने सड़क के सूखे पत्ते साफ कर सफाई अभियान की शुरूआत की वहीं खुद को आम आदमी बताने वाले केजरीवाल ने गंदी बजबजाती नालियों को साफ किया। अब ​किसने हकीकत में किया किसने ड्रामा यह तो भगवान जानता है या तो फिर वह खुद। लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं की इस सफाई अ​भियान के पीछे स्वार्थ निहित है। कुल मिला कर आज मोदी,झाडू और  गंदगी के बीच कोई रिश्ता नजर नहीं आया।

     
​जिस तरह से मोदी ने सफाई ​अभियान कार्यक्रम को अंजाम दिया वह तो महज एक ढोंग था। पहली बात तो कोई सज—धज कर व नए स्त्री किए हुए कपड़े पहन कर तो अपने घर पर भी झाडू नहीं लगाता,रोड में लगाना तो दूर की बात है। और दूसरी बात मीडिया को हफ्तों पहले से सूचित करना कार्यक्रम को प्री—प्लान्ड ड्रामा बनाता है, आज—कल तो कोई सफाई कर्मचारी भी किसी को बता कर झाडू नहीं लगाने जाता । और तीसरी बात रही मीडिया के समाने व सज धज कर कार से आना और फिर झाडू लगाना,लोगो को तो पड़ोसी भी घर के बाहर झाडू लगाते देख लेते हैं तो वह झेंप जाते हैं। इन सब पर गौर करें तो मालूम चलता है कि मोदी का सफाई अभियान कम ईवेंट ज्यादा था।

    
अगर मोदी को कुछ साफ ही करना था तो पीएम आवास अथवा संसद भवन में एक दिन के लिए सफाई कर्मचारियों की छुट्टी कर देते और थाम लेते झाडू। अगर इतने से भी पेट न भरता तो निकल पड़ते दिल्ली की गलियों में वहां काफी कुछ था साफ करने को। खैर जो हुआ सो हुआ। अभी भी मोदी जी एक काम और कर सकते हैं,रोजाना अपना बेडरूम ही साफ कर लिया करें वही बहुत है। और रही केजरीवाल की बात तो उनके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है,ये पब्लिक है कि सब जानती है। मोदी के इस सफाई अभियान कम ईवेंट के दौरान प्रशंसकों को आटोग्राफ देना कहां तक उ​चित था। भला क्या कोई सफाई वाला आटोग्राफ देता है ? मोदी जी जनता को उल्लू न बनाविंग......

                                                                                                       08109555764/09455879256

Friday, September 26, 2014

मोदी का मंगलराज

मंगलयान की खुशी में बेचारे भारतीय लोट पोट हुए जा रहे हैं। अच्छी बात है खुशी किसको नहीं होती। ऐसा ही कुछ मोदी सरकार के साथ है। मोदी सरकार के रिपोर्ट कार्ड में एक और उपलब्धि जुड़ गई। सरकार खुश तो जनता अपने आप खुश। आखिर यह मंगल यान किसके लिए मंगल है। आपके लिए या हमारे लिए या फिर देश की उस एक चौथाई जनता के लिए जिसे मंगल ग्रह की लाल सतह चूल्हे के अंगारों में नजर आती है। जी हां देश में आज भी एक चौथाई जनता दो वक्त की रोटी की  मोहताज हैं। दिन भर जूझने के बाद शाम  चूल्हे में अंगारे धधके या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। लेकिन मोदी सरकार में मंगल यान की सफलता की पूरी गारंटी थी। बीजेपी के मैनीफेस्टो में यह लिखा था क्या मुझे याद नहीं आ रहा…..

Monday, August 25, 2014

कहीं दूसरी गाजा पट्टी न बन जाए काश्मीर

   भारत-पाक के बीच लगातार बढ़ता तनाव किसी एक के लिए नहीं बल्कि काश्मीर के लिए घातक साबित हो रहा है। बार बार वार्ताओं के विफल दौर से जूझ रहे दोनो देशों में कुशल नेतृत्व व निर्णायक क्षमता का अभाव स्पष्ट झलकता है। ६७ सालों से इन दोनों देशों के बीच सिर्फ और सिर्फ काश्मीर पिस रहा है।
जब-जब इन देशों के बीच आग भड़की है सबसे ज्यादा नुकसान सिर्फ काश्मीर का ही हुआ है। दोनों देशों के बीच भंवर में फंसे काश्मीर को लेकर शांति वार्ता सरीखी हर बात विफल ही रही है। न तो पाक अपनी कही हुई बात पर अडिग रह पाया है न तो भारत जनता से किए गए अपने वादे पर। सेना से मजबूर पाक सरकार ने हर बार भारत को धोखा दिया है। बंद कमरे में भले ही पाक ने भारत से शांति वार्ता के तहत बड़े-बड़े वादे कर लिए हों लेकिन पाकिस्तानी सेना को वह मंजूर नहीं। पाकिस्तान में लोकतंत्र महज एक रबर स्टैंप के शिवाय कुछ और नही है। सेना की तानाशाही लगातार जारी है। पाक सेना अपने रसूख में कोई कमी नहीं आने देना चाहती यही वजह है कि पाक की कथनी और करनी में जमीन आसमान का फर्क है। आजादी के बाद से इन छह दशकों के बीच में चार बड़े युद्ध और दर्जनों शांति वार्ता व समझौते इस बात की प्रमाणिकता को जाहिर करते हैं। युद्ध तो जरूर हुए लेकिन न तो भारत कुछ हासिल कर पाया न तो पाक। हालात तब भी वही थे और आज भी वही हैं। अगर आज के हिसाब से देखा जाए तो उससे भी कहीं ज्यादा बदतर।
पाक ने जब-अपना नापाक चेहरा दिखाया है तब तब मंजर बेहद खौफनाक रहा है। वह बार बार खून की होली खेलता रहा और हम अपने ही लोगों के खून की स्याह से शांति वार्ता की पटकथा लिखते रहे।
वैसे तो भारत पाक मुद्दा हमेशा ही सुर्खियों में बना रहता है लेकिन इस बार यह मुद्दा एक बार फिर उस समय गर्माया है जब अरब देश इस तरह की मुसीबतों से दो-चार हो रहे हैं। मौजूदा दौर में काश्मीर की हालत फिलिस्तान और इजराइल के बीच फंसे गाजा पट्टी से कुछ कम नही है। बंद कमरे वार्ता की खनक सीमा पर सुनाई देती है,मानों रिमोट कहीं और रिएक्शन कहीं और । अब वक्त आ गया है कठोर फैसले लेने का और उन पर अडिग रहने का। लेकिन हां फैसलों के बीच काश्मीर को दूसरी गाजा पट्टी बनने से भी रोकना होगा।
प्रशांत सिंह
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