Tuesday, December 30, 2014

धर्म के ठेकेदारों को खत्म करें


ज-कल 'पीके' फिल्म को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। कुछ लोग इसे हिंदू विरोधी भी बता रहे हैं तो कुछ इसकी सराहना भी कर रहे हैं। दरअसल बात विरोध या सराहना की नहीं है। भारत में धर्म और आस्था के नाम पर पाखंड की जड़ें इतनी गहराई तक समाई हुई हैं कि तने पर जरा सी चोट मात्र पर पेड़ तो तो जस का तस खड़ा रहता है, लेकिन पत्तों में गडग़ड़ाहट पैदा हो जाती हैं। हालांकि इस मुद्दे को बेवजह हवा दी जा रही है। 

दुनिया भर में मौजूद प्रत्येक धर्म कहता है कि ईश्वर एक है। जब ईश्वर एक है तो धर्म अनेक क्यों? भारत में धर्म के नाम पर लोगों की दुकानें खूब फल-फूल रही हैं। धर्म को लेकर सबके अपने अलग-अलग मायने हैं। सबकी अपनी मान्यताएं हैं और सभी धर्म और भगवान को अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं। कोई भगवान के नाम पर रोजी-रोटी कमा रहा है तो कोई जाति-धर्म के माध्यम से अपनी राजनीति चमका रहा है। लोग धर्म को व्यापार का जरिया बना रहे हैं। देश में भगवान के नाम पर लूटने वालों के कारनामे किसी से छिपे नहीं हैं। जाहिर है कि हम सबका मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च जाने के पीछे एक स्वार्थ निहित होता है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस भगवान से हम दोनों हाथ फैलाकर हमेशा कुछ न कुछ मांगते रहते हैं, उनको ही बेचारा समझ चंद सिक्के या एक अदद सा नोट दान-पात्र के हवाले कर देते हैं। वहीं चौराहे पर एक भीख मांगते लाचार को देख मुंह बिचका कर चल देते हैं।
सर से लेकर पांव तक हम मानते हैं कि भगवान ने इंसान की रचना की, लेकिन आज वही इंसान भगवान की रचना कर रहा है। इससे बड़ी विध्वंसक बात कुछ और हो ही नहीं सकती है। वास्तव में धर्म की परिभाषा से सभी अनजान हैं। धर्म के नाम पर आए दिन नए-नए पाखंड रचे जाते हैं। दुनिया भर में धर्म के नाम पर इंसान ही भगवान का सौदा करने पर आमदा है। गली-गली, चौराहे-चौराहे पर भगवान बिकाऊ हैं। भगवान और इंसान के बीच बिचौलियों का कब्जा हो गया है। जब-जब हम पर अंधविश्वास हावी होता है हम बिचौलियों का सहारा लेते हैं। धर्म के नाम पर दुकानें चल रही हैं। आसाराम, रामपाल इस बात के उदाहरण हैं। अगर हमको-आपको भगवान तक सीधा पहुंचना है तो धर्म के इन ठेकेदारों को खत्म करना होगा। 

Wednesday, December 24, 2014

प्रधान सेवक जी, जनता जवाब मांगे..

                               मोदी की हालत पीआर कंपनी के एजेंट सी हो गई है

ज कल दुनिया में हो हल्ला मचा हुआ है। एक ओर जहां दुनिया आतंकवाद से बिलख रही है वहीं भारत धर्मवाद से तड़प रहा है। अभी ऊबर कांड का जिन्न शांत नहीं हो पाया था कि देश में धर्मांतरण का मुद्दा बहस का मुद्दा बन गया। अचानक उपजे इस 'घर-वापसी' कार्यक्रम को लेकर जहां एक ओर विपक्षी दलों के नेता सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी बहुत कुछ बयां कर जाती है। इस पूरे प्रकरण पर मोदी ने शुरू से लेकर अब तक कोई सार्वजनिक खंडन नहीं किया है। इस शोर-शराबे के बीच सवा सौ करोड़ लोग मोदी को ताक रहे हैं लेकिन मोदी बगलें झांकते नजर आ रहे हैं। देश में धर्म के नाम पर हो रहे तांडव पर हिंदुस्तान की आवाम को जब मोदी की सख्त जरूरत है तब मोदी की ये खामोशी समझ से परे है। आम चुनावों के पहले रैलियों-मंचों से दहाड़ते मोदी के रूप में जनता को एक ऐसा शख्स नजर आ रहा था जो जाति, धर्म इत्यादि से परे विकास, एकजुटता, भाईचारे की बात कर रहा था। दशकों से चली आ रही जाति -धर्म की सियासत से ऊब चुके लोगों को मोदी में नई किरण दिखाई दे रही थी। ऊंचे- ऊंचे मंचों से माइक पर गरजते मोदी ने जनता को भरोसा दिलाया था कि वह सुशासन को देश के एजेंडे पर लाकर रख देंगे। लेकिन समय के साथ चुनाव से पहले किए गए सारे वादे कदम-दर-कदम खोखले साबित होते जा रहे हैं। चुनाव के पहले करोड़ों लोगों के लिए सुपरमैन का अवतार बन चुके मोदी की दशा इस समय एक पीआर कंपनी के एजेंट सी हो गई है। जो देश विदेश में घूम-घूम कर 'भारत ब्रांड' के लिए बिजनेस जुटा रहा है। मोदी के हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपते समय जनता ने जिस 'सियास' से मुक्त होने का सपना देखा था, आज उन्हीं मोदी के प्रधानमंत्री रहते हुए देश में धर्मांतरण जैसा 'कृत्य' खुलेआम हो रहा है। सरकार की सह पर आरएसएस और विहिप देशभर में तथाकथित घर वापसी को सरेआम अंजाम दे रहे हैं। मोदी के इस छोटे से शासन काल में ही  'लव जिहाद', 'बहू बनाओ-बेटी बचा' और घर वापसी जैसे मामलों की फेहरिस्त मोदी को कठघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। मंत्रियों-सांसदों की भड़काऊ बयानबाजी से त्रस्त जनता को अब सिर्फ  देश के प्रधानमंत्री के जवाब का इंतजार है। ऐन मौके पर उनकी खामोशी अखरती है। 

Thursday, December 11, 2014

नियम-कानून नहीं मानसिकता बदलनी जरूरी है

आज से ठीक दो साल पहले 16 दिसंबर 2012 की रात की उस खौफनाक वारदात को शायद ही कोई भूला हो। चलती बस में मेडिकल की छात्रा से दुष्कर्म की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। हादसे के बाद गली मुहल्ले से लेकर संसद तक भूचाल आ गया था। महिला सुरक्षा को लेकर तमाम तरह के सवाल खड़े हुए। संसद से ही उनके समाधान भी खोज लिए गए। लेकिन उनके सड़कों पर आने की परवाह किसी को नहीं थी। लोगों ने बढ़-चढ़ कर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। ऐसा लग रहा था मानों रेप दरिंदों ने नहीं बल्कि सरकार ने किया हो। कड़ाके की सर्दी में पुलिस की लाठियों तथा पानी की बौछारों की चिंता न करते हुए हजारों की संख्या में लोग आरोपियों को सजा दिलाने दिल्ली की सड़कों पर उतरे। जगह-जगह कैंडल मार्च का अयोजन किया गया। सरकार ने प्रदर्शन कारियों की मांगों को संज्ञान में लिया। आज दो साल बाद फिर दिल्ली की सड़कों पर रेप की घटना ने तूल पकड़ा। निर्भया कांड के बाद नियम बदले, कानून बदला, सरकार बदली। और अब सवाल यह है कि लोग कितना बदले? वह लोग कितना बदले जो 2 साल पहले इंसाफ का मुखौटा पहन न्याय की मांग कर रहे थे। एक सवाल है उन सबसे जो लोग ठीक 2 साल पहले सड़कों पर पुलिस की लाठियों की परवाह न करते हुए, सड़कों पर मोमबत्ती लेकर घूम रहे थे, वह कितना बदले? क्या उन्होंने सड़क पर चलती लड़कियों/स्त्रियों को घूरना बंद कर दिया है। शाम को स्कूल-कॉलेज,कोचिंग अथवा ऑफिस से घर लौट रही लड़कियों पर फब्तियां कसना बंद कर दिया है? दिन भर शराफत का चोला पहन कर घूमने वाले लोग अंदर से कितने नंगे हैं इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि निर्भया कांड के दौरान 5 आरोपी बनाम पूरा देश था, लेकिन देश में महिलाएं अब भी सुरक्षित नहीं। घिनौनी वारदातों को अंजाम देने वाले दरिंदे आसमान से नहीं उतरते,इतर वह हम सबके बीच से ही होते हैं। इसके लिए  दोषी न सरकार है न कानून। दोषी हमारा समाज है। हम हैं। बस, टैक्सी बैन करने से कुछ नहीं होने वाला। अगर होता तो निर्भया कांड के बाद ऊबर कांड का अस्तित्व ही नहीं होता। अगर कुछ बदलना है तो हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। यह भारतीय समाज ही है जहा पैदा होते ही बेटों को नकली तमंचा और बेटी को गुडिय़ा पकड़ाई जाती है।

Wednesday, December 10, 2014

खयालों में गुम


(जनसत्ता में 12 दिसंबर 2014 को प्रकाशित असंपादित लेख।जनसत्ता की वेबसाईट पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें अथवा जनसत्ता के ई—पेपर में पढ़ने के यहां क्लिक करें )

भी-कभी सड़क पर चलते-चलते खयाल आता है और खयालों में ही पूरा महल खड़ा हो जाता है। उन खयालों में इतना डूब जाता हूं कि आगे की सुध ही नहीं रहती। असली मंजिल भूल कर धरातल तक पहुंचने का सिलसिला शुरू ही होता है कि व्यवस्था की शक्ल में पत्थर से टकरा कर एक झटके में खयालों का वह महल चूर हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? यह समझने के लिए निगाहें किसी को खोजती फिरती हैं। फिर खयाल आता है कि मेरी ही तरह अन्य भी इस नीरस भौतिकता में जी रहे हैं। कई दफा उचित व्यक्ति के पास पहुंच कर भी ठहर जाता हूं। फिर अपने खयालों का पुलिंदा अंदर ही समेट कर छटपटा कर रह जाता हूं। आखिर हम लोग क्यों जी रहे हैं? एक बार यह सवाल सुन कर कोई भी कुछ क्षण के लिए सोचने को मजबूर हो सकता है। उस रात लेटे-लेटे मैंने खुद से यह सवाल किया तो जवाब ढूंढ़ते हुए रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला।
भौतिकता के भय में अवसाद से जूझने का सिलसिला शुरू हो गया। न चाहते हुए भी जवाब का खयाल छोड़ कर भौतिकता की अंधी भाग-दौड़ में शामिल होने की तैयारी करने लगा। पेट की भूख और जीने की जरूरत ने इंसान से उसका समय चुरा लिया है। खुद के बारे में उसे सोचने का वक्त नहीं मिल पाता। जिंदगी भर कोई भाग-भाग कर घर पर अपने पीछे पल रहे प्राणियों के लिए दाने-पानी का इंतजाम करता है तो किसी के पास सालों-साल या फिर दशकों के दाने-पानी का इंतजाम होते हुए भी वह न जाने किस मंजिल पर पहुंचने की होड़ में है। इस सवाल का जवाब शायद उनके पास भी नहीं होगा।
दिन भर की जद्दोजहद के बाद शाम को घर लौटते समय फिर से खयालों का सिलसिला शुरू हो जाता है।
यह सिलसिला यों ही भौतिकता से शुरू होकर भौतिकता पर आकर ठहर जाता है। निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले ही फिर सवालों के घेरे में उलझ जाता हूं। जिंदगी घड़ी की सुइयों में सिमट गई है, जिनके इशारे पर दिन भर चकरघिन्नी बने फिरते हैं और बेसब्री से वक्त के ठहरने का इंतजार करते हैं। रोजाना बिस्तर पर जाकर एकबारगी वक्त के ठहर जाने का अहसास होता है। लेकिन अहसास के हकीकत में बदलने से पहले ही वह महज मृग-मरीचिका साबित होता है। अगली सुबह हम फिर घड़ी की सुइयों के इशारे पर नाचने के लिए खुद को तैयार करने के लिए जुट जाते हैं। इस बीच जो नींद आती है, उसे नींद का नाम दिया जाए या फिर अगले दिन के लिए खुद को फिर से तैयार करने का जरूरी खुराक। इस फेर में अक्सर हम असल जिंदगी के जरूरी खुराक लेना भूल जाते हैं। जिंदगी के कुछ पन्ने पलट जाने के बाद हमें इस बात का आभास होता है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस भागमभाग-सी जिंदगी के बीच हम न जाने किससे आगे जाने की होड़ में रहते हैं और पीछे छूट जाता है हमारा सुख-चैन और यथार्थ। थक-हार कर जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो बचपन से लेकर पचपन तक हमने जो सपने संजोए थे, सभी बिखरे हुए नजर आते हैं। चाह कर भी हम भागना नहीं छोड़ पाते, क्योंकि पैदा होते ही हमें चलना सिखाया जाने लगता है। जिंदगी की इस भाग-दौड़ में हम अनेक मुकाम हासिल करके भी न जाने खुद को, रिश्तों, मूल्यों और यहां तक कि अपने गांव और देश को भी कितना पीछे छोड़ आते हैं। लेकिन इतना आगे आकर भी हम कहीं नहीं पहुंच पाते हैं। जिंदगी के अंतिम दिनों में सुकून ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। हासिल कुछ नहीं! ज्यादा से ज्यादा नए किरदार में जिंदगी का वही सिलसिला!
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