Thursday, July 16, 2015

लौकी की बर्फी


(29 जून 2015 को जनसत्ता में प्रकाशित जनसत्ता की वेबसाईट पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें अथवा जनसत्ता के ई-पेपर में पढ़ने के यहां क्लिक करें)

बकी बार जब घर से लौट रहा था तो घर पर मां नहीं थीं। कोई जरूरी काम आ जाने की वजह से वे कुछ दिनों के लिए बाहर गई थीं। हालांकि महीनों बाद कुछ दिनों के लिए घर जाना और कई महीनों के लिए फिर वापस लौट आने की जब बारी आती है तो हर कोई भावुक हो जाता है। सालों तक हमारे नखरे सहने वाले माता-पिता, जिस घर की दीवारों में आपकी सांसें बसती हों, जो परिवार आपके पीछे साए की तरह खड़ा रहता हो, उसे छोड़ कर जाना वाकई आसान काम नहीं है। घर से विदा लेने की इस नाजुक घड़ी में भावुकता कई बार तो आंसुओं के रूप में भी बाहर आ जाती है।
हर बार की तरह मैंने फिर हंसते हुए घर से कुछ यों विदा ली, मानो पास के नुक्कड़ तक जाकर वापस आना हो। परिवार का हर सदस्य घर की चौखट पर से मुझे विदाई दे रहा था। इस बीच मैं जरा भी भावुक नहीं दिखा या फिर भावुक न होने का नाटक कर रहा था। उन सबके मुस्कराते चेहरे मुझमें घर से दूर रहने की इच्छाशक्ति भर रहे थे। अहिस्ता-अहिस्ता मेरे और उनके बीच फासला बढ़ता जा रहा था। आंखों के सामने सब धुंधला पड़ने लगा था। मगर मेरी आंखें कुछ खोज रही थीं। शायद वह मां थीं, जिन्हें मैं खोज रहा था। मां के बिना चौखट सूनी लग रही थी। उन सबसे रुखसत होते हुए मैं दोबारा पलट कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। अंदर भावनाओं ने उथल-पुथल मचा रखी थी, लेकिन मैं मुस्कराते हुए विदा हो रहा था, अगले कुछ महीनों के लिए।
पूरे सफर के दौरान मां और उसके हाथ की बनी लौकी की बर्फी याद आती रही। अमूमन मैं घर से खाने-पीने की चीजें अपने साथ नहीं ले आता। शायद इसलिए कि बाहर रहते हुए वह मेरी कमजोरी न बन जाए। काफी ना-नुकुर के बाद आखिर मैं मां से हार ही जाता था। पिछली बार करीब 6 महीने पहले घर गया था। वापस लौटते वक्त मां ने चोरी-छिपे मेरे बैग में घर की बनी लौकी की बर्फी रख दी थी। यह शायद मां की ममता ही है, जो शून्य में भी संभावनाएं तलाश लेती है। मुझे याद है कि उस बार जब मैं लौटा था तो बर्फी के हर एक टुकड़े के साथ खूब रोया था। शायद ये वही आंसू थे, जो हर बार घर से विदा होने के वक्त मैंने अपनी छाती में दफ्न कर रखे थे। बर्फी का अंतिम टुकड़ा खत्म होने तक यह सिलसिला जारी रहा। उसे याद कर आज भी आंसू निकल आते हैं।
इस बार गांव में करीब दस दिन बिताने के बाद जब लौट कर इंदौर पहुंचा तो बिना देर किए पूरा बैग पलट डाला। हालांकि मैं यह जानता था कि बैग में कपड़ों के अलावा कुछ और नहीं है। हर बार की तरह इस बार भी मैंने घर के सदस्यों के तमाम आग्रह के बावजूद कुछ भी साथ ले जाने से इनकार कर दिया था। इस बार घर में जोर-जबरदस्ती करने वाली मां नहीं थीं। लेकिन यह शायद मां की ममता ही थी, जिसने मुझे बैग खंगालने को मजबूर कर दिया। इसके बावजूद मैं न जाने किस उम्मीद में कपड़ों की तह खोलते हुए उसमें कुछ खोज रहा था कि अचानक फिर से मां के हाथ की बनी लौकी की बर्फी याद आ गई। बस फर्क यह था कि इस बार मेरे हाथ में बर्फी की जगह कपड़े थे, जिन्हें हाथ में लेकर मैं बिना रुके रोए जा रहा था!

Monday, April 6, 2015

क्यों कि तुम स्त्री हो...

डीएनए में 6 अप्रैल 2015 को प्रकाशित
7 अप्रैल 2015 प्रभात खबर,पटना

Saturday, April 4, 2015

क्यों कि तुम स्त्री हो...


मैं पुरुष हूं, तुम स्त्री हो और
स्त्रियों की तरह रहो। तुम्हारे चारो तरफ लक्ष्मण रेखा खिंची हुई है, उसके अंदर रहो।  भारत पुरुष प्रधान देश है। मुझे नहीं अच्छा लगता कि कोई स्त्री मुझसे ज्यादा काबिल बने, या फिर उसके मामलों में दखलंदाजी करे। तुम सदियों से चाहरदिवारी के पीछे कैद एक नौकरानी की तरह रहती आई हो और उसी तरह रहो। तुम मेरे लिए एक वस्तु की तरह हो वस्तुत: बनने की कोशिश भी न करो।   

तुम घर में काम करने के लिए बनी हो। तुम बच्चे पैदा करने के लिए बनी हो। तुम पुरुषों को सुख देने के लिए बनी हो। तुम्हे न बोलने का हक है। न खुलकर हंसने का और न ही खुलकर रोने का। तुम वही करोगी जो मैं तय करूंगा। तुम वही पहनोगी जो मैं चाहूंगा। तुम्हे अपनी मर्जी चलाने का कोई अधिकार नहीं है। आंसू बहाना तुम्हारी किस्मत का सच है। क्यों कि तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं। 

तुम्हारे शरीर के एक-एक अंग के बारे में, तुम्हारी हर एक हरकत के बारे में फैसला करने का अधिकार सिर्फ मेरे पास है। मैं कभी भी कहीं भी जा सकता हूं बिना तुमसे बताए। लेकिन तुम्हे कहां जाना है और क्या करना है इसका फैसला मैं करूंगा। क्यों कि तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं।

मैं सिगरेट पियूं या शराब पियूं , गोश्त खाऊं ,तुमसे क्या मतलब। लेकिन तुम्हे क्या खाना है कब खाना है और क्यों खाना है ये मैं तय करूंगा। मैं देर रात घर लौटूं, या न लौटूं। तुमसे क्या मतलब। लेकिन तुम्हे कब सोना है कब जागना है, ये मैं तय करूंगा। क्यों कि तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं।

 तुम्हे किससे शादी करनी है । क्यों करनी है। कब करनी है। यह भी मैं तय करूंगा । मैं अपने दोस्तों से आपस में क्या बात करता हूं, क्यों करता हूं, तुम्हे यह जानने का कोई हक नहीं लेकिन तुम्हे क्या बोलना है कब बोलना है और क्यों बोलना है, ये मैं तय करूंगा। क्योंकि तुम...! 

मैं दिन भर क्या करता हूं , कहां रहता हूं। तुम्हे यह जानने का कोई हक नहीं। लेकिन तुम दिनभर क्या करोगी कहां रहोगी यह भी मैं तय करूंगा। तुम चाहरदिवारी के भीतर ही अच्छी लगती हो। तुम्हारी जगह वहीं है। तुम्हे बाहर निकलने का कोई हक नहीं है। तुम मेरे लिए एक वस्तु हो। मैं तुम्हारे साथ कभी भी कुछ भी कर सकता हूं। तुम्हे डांट सकता हूं, झिकझोर सकता हूं। यहां तक कि तुम्हे पीट सकता हूं। लेकिन तुम्हे मेरे ऊपर हाथ उठाने का कोई हक नहीं है। क्यों कि तुम...! 

मैं जब चाहूं तब तुम्हारे साथ सेक्स करूं, जोर-जबरदस्ती करूं , छेडख़ानी करूं, कमेंट पास करूं, भद्दी टिप्पणियां करूं, बिस्तर पर अपनी मर्जी चलाऊं, पराई औरत संग सेक्स करूं , सब मेरी मर्जी है। मैं दो शादी करूं या चार। मैं दो पत्नियां रखूं या दो दर्जन। लेकिन तुम दो शादी नहीं कर सकती, दो पति नहीं रख सकती। दो पुरुषों के साथ सेक्स नहीं कर सकती। बिस्तर पर अपनी मर्जी नहीं चला सकती। तुम्हे कितने बच्चे पैदा करने है, क्यों करने हैं और कब करने हैं । लड़की पैदा करना है या लड़का । ये मैं तय करूंगा। क्यों कि ...! 

हां तुम स्त्री हो और स्त्री की यही परिभाषा है। हमारा समाज स्त्री को इसी नजर से देखता है। पुरूषों की मानसिकता में स्त्री इससे ज्यादा कुछ  भी नहीं है। तुम भले ही लाख वूमेन एम्पावरमेंट चिल्ला लो, लेकिन मेरी नजर में तुम्हारी परिभाषा नहीं बदलने वाली। क्यों कि ...! 

हाल ही में दीपिका पादुपकोण और वोग मैग्जीन ने वूमेन एम्पावरमेंट को इंगित करता मॉय च्वॉइस नाम का एक वीडियो जारी किया था। जिसके बाद से बुद्धिजीवियों और फेमिनिस्टों में लंबी बहस छिड़ गई है। एक ओर जहां मॉय च्वॉइस नामक इस वीडियों के साथ दीपिका की जम कर आलोचना हो रही है, वहीं कुछ लोग महिला सशक्तिकरण को लेकर वीडियो और दीपिका के सर्मथन में झंडा बुलंद कर रहे हैं। हालांकि इस वीडियो के पक्ष से ज्यादा विरोध में सुर उठे हैं। इस बात से यह फिर से साबित हो जाता है कि एक स्त्री को पुरुषों की अपेक्षा से इतर जाकर कुछ सोचने का अधिकार नहीं है। 

हालांकि सेक्सिज़म और अश्लीलता को वूमेन एम्पावरमेंट बताना मुद्दे के साथ बेईमानी होगी। मगर इस मुद्दे पर  उंगली उठाने वाले खुद अपनी गिरेबान में झांक कर देखें तो वह उतने ही नंगे नजर आएंगे जितना कि यह वीडियो औरतों को कपड़े उतारने और सेक्सिज़म को प्रेरित करता है। आखिर क्यों ऐसा होता है कि हर पुरुष राह चलती औरत के कपड़ों के भीतर झांक कर देख लेना चाहता है? क्यों खयालों ही खयालों में उसे नंगा करने की जुगत में लगा रहता है? जिस दिन पुरुष इन सवालों का जवाब तलाश लेंगे उस दिन से एक स्त्री को महिला सशक्तिकरण के लिए लड़ना नहीं पड़ेगा। आज जब स्त्रियों के लिए किसी ने दमदारी के साथ आवाज उठाई है तो हम नैतिक संस्कारों और मूल्यों का दुहाई देते फिर रहे है। क्या स्त्री होना वाकई इतना कठिन है। क्या जिंदगी के रंग मंच में स्त्री के लिए इससे बेहतर कोई और स्क्रिप्ट नहीं लिखी गई। आखिर स्त्री और पुरुष एक ही कोख से जन्में दो पहलू हैं। दोनों ईश्वर की समान कृति हैं। फिर स्त्री होना इतना कठिन क्यों है?


Wednesday, March 25, 2015

हाशिमपुरा तुम भारत से हार गए!



''हाशिमपुरा'' , अचानक से चर्चा में आया यह शब्द मेरे लिए एकदम नया था। हो भी क्यों न नया? यह घटना तब की थी जब मैं पैदा भी नहीं हुआ था। जब तक मैं समझ पाता कि यह क्या बला है, उससे पहले ही अखबार , टीवी, सोशल मीडिया सब जगह हाशिमपुरा  जंगल में लगी आग की तरह फैल गया। 

जब इस हाशिमपुरा नामक आग के दरिया में थोड़ा करीब से झांक कर
देखा तो पता चला कि इतिहास में कितना कुछ दफन है। बीते 28 सालों से मुर्दे की तरह दफन इस मामले के बारे में इससे पहले शायद मैनें कभी नहीं सुना था, या सुना भी होगा तो याद नहीं। आज इस हाशिमपुरा नरसंहार के 28 साल बीतने के बाद भी लपटें किसी को भी झुलसाने के लिए काफी हैं। दिल्ली से सटे मेरठ के हाशिमपुरा में 22 मई 1987 को पीएसी के जवानों ने मुस्लिम समुदाय के 42 लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी थी। हुआ कुछ यूं था कि 1986 में तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने अयोध्या के विवादित ढ़ांचे को खोलने का फैसला लिया था। जिसके बाद से ही उत्तर प्रदेश में रह-रह कर दंगे भड़कते रहे थे। धीरे-धीरे दंगों की आग मेरठ जिले तक पहुंची। 21 मई 1987 को मेरठ के हाशिमपुरा में एक युवक की हत्या कर दी गई। हत्या के बाद हाशिमपुरा जल उठा। कैसा जल उठा होगा? उस समय क्या हालात रहे होंगे? मुझे पता नहीं। जहां तक मैं अंदाजा लगा सकता हूं, शायद मुजफ्फर नगर दंगो की तरह या उससे भी अधिक भयावह हालात रहे होंगे। पूरा इलाका दंगे की चपेट में आ चुका था।  गली-चौराहे की दुकानों को आग के हवाले किया जा चुका था। दंगा-फसाद चरम पर था। 

22 मई, 1987 को जवानों से लदा पीएसी का एक ट्रक मस्जिद के सामने रुकता है। मस्जिद में धार्मिक सभा चल रही थी। ट्रक से भारी संख्या में जवान उतरते हैं और सभा में शामिल लोगों को हिरासत में ले लेते हैं। यह था इस घटना का पहला दृश्य दूसरा दृश्य इस नरसंहार के पीडि़त मोहम्मद उस्मान की जुबानी, '' उस्मान बताते हैं कि
हम घर पर थे। मैं, मेरे वालिद के साथ बैठा था। कुछ लोग तलाशी के बहाने से आए और हमें घर से बाहर निकाला। हमसे हाथ ऊपर करने को कहा गया और फिर हमें पीएसी के हवाले कर दिया गया। हमने देखा कि वहां बहुत सारे लोग पहले से बैठे हुए थे। शाम के समय सब को ट्रकों में भर के सिविल लाइन्स थाने भेजा गया। फिर उसके बाद करीब 50 मर्दों को छांट कर अलग किया गया। औरतों और बच्चों को एक तरफ कर दिया गया औरतों और बच्चों को छोडऩे को कह दिया था और हमें छांट कर एक तरफ खड़ा कर दिया गया।''

इसके बाद जो हुआ उसका बखान करने में शायद किसी का भी कलेजा कांप उठे। सूरज ढ़लने के बाद सभी को पीएसी की 41 बटालियन के एक ट्रक में लादा गया।  सभी को ट्रक में बैठने के लिए कहा गया और पीएसी के जवान उनकी निगरानी के लिए खड़े रहे। पीएसी के इरादों से बेपरवाह वह सभी शून्य भाव होकर एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। उन बेचारों को क्या पता था कि यह उनकी जिंदगी का आखिरी सफर होगा। ट्रक को मुरादाबाद की गंग नहर की ओर ले जाया गया था। नहर के​ निकट एक जगह ट्रक को रोका गया। वहां एक व्यक्ति को नीचे उतारा गया और उसे गोली मार दी गई। और यह देख ट्रक में बैठे बाकी के लोग सहम गए। पीएसी के इरादों की भनक लगते ही उनमें से कुछ ने हिम्मत कर के ट्रक से कूद कर भागने की कोशिश की लेकिन जवानों ने उन्हें वहीं का वहीं छलनी कर दिया। इसके बाद सभी को नहर में फेंक दिया गया। इस घटना में  42 लोग मारे गए थे। 

यह मामला 28 सालों से कोर्ट में था। समय के साथ इस मामले में भी धूल की परतें भी मोटी हो चुकी थी। न्याय का इंतजार करते-करते पीडि़तों के बाल सफेद हो गए थे। सालों बाद घटना की जांच रिपोर्ट सौंपी गई। मामला दर्ज हुआ।  161 गवाह बने और पीएसी के जवानों को आरोपी भी बनाया गया।  16 जवानों पर मुकदमा चला। 21 मार्च को अदालत ने फैसला सुनाया। लेकिन अदालत ने आरोपियों को सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए बरी करने का हुक्म सुनाया। सालों से दफन हाशिमपुरा मामले में फैसला तो आ गया लेकिन जीत किसकी हुई? हाशिमपुरा पीडि़तों की या फिर खुद को कानून पर चलने वाले संविधानिक गणतंत्र कहने वाले भारत की? 

Tuesday, February 24, 2015

जासूसी कांड: गहरी हैं जड़ें

पेट्रोलियम मंत्रालय में जासूसी कांड  के खुलासे के बाद से ही सरकारी महकमे में हड़कंप मच गया। हालांकि सरकारी मंंत्रालयों में जासूसी की यह पहली घटना नहीं है। देश के सौदागारों का यह गोरखधंधा पिछले कई सालों से चल रहा था। इस जासूसी कांड ने सन 1980 के दशक की यादों को फिर से ताजा कर दिया है, लेकिन इतने व्यापक स्तर पर सरकार की नाक के नीचे से दस्तावेजों की चोरी को अंजाम देना और किसी को भनक न लगना समझ से परे है। इसमें जरूर किसी साजिश की बू आती है। और तो और अब  कोयला और ऊर्जा मंत्रालय के संग जासूसी की चपेट में रक्षा मंत्रालय भी आ गया है।
हालांकि इस बार आरोपी कानून के हत्थे चढ़ गए हैं, लेकिन उनके पीछे बैठे उनके आकाओं तक पहुंचने में कानून के हाथ छोटे भी पड़ सकते हैं। पकड़े गए आरोपियों से देश के बड़े कॉर्पोरेट घरानों के संबंध भी साबित हो गए हैं। गिरफ्तार आरोपियों में से शीर्ष ऊर्जा कंपनियों के वरिष्ठ अधिकारियों समेत तकरीबन दर्जन भर गिरफ्तारियां हुई हैं। गिरफ्तार किए गए लोगों में से आरआईएल के शैलेष सक्सेना, एस्सार के विनय कुमार, केयर्न से केके नाईक, जूबिलैंट एनर्जी के सुभाष चंद्रा और एडीएजी रिलायंस के ऋषि आनंद व मंत्रालय के कर्मचारियों संग बिचौलिए भी शामिल हैं, जबकि जासूसी नेटवर्क की जड़ें और भी गहरी होने का अनुमान है। और तो और जासूसी के तार अब चीन और पाकिस्तान से भी जुडऩे के संकेत मिल रहे हैं।
जासूसी कांड की एक कड़ी अंबानी बंधुओं से भी जुड़ती है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अंबानी घराने के रिश्ते जगजाहिर हैं। ऐसे में सरकार की भूमिका अहम रहेगी। क्या कानून के दायरे में अंबानी को भी खड़ा किया जाएगा? या फिर सिर्फ पकड़े गए कंपनी के कर्मचारियों को बलि का बकरा बना कर मामले को दफन कर दिया जाएगा। इस जासूसी कांड से यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर आती है कि कॉर्पोरेट घरानों ने अपने फायदे के लिए न सिर्फ राजनेताओं का इस्तेमाल किया बल्कि जासूसी का भी सहारा लिया।
हालांकि गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि सभी आरोपियों को कठोरतम सजा दी जाएगी व मामले की जांच भी की जाएगी जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। अब देखना यह होगा कि सरकार आरोपियों को परदे के पीछे दफन करेगी या कॉर्पोरेट हाउसों को जनता के सामने लाकर बेनकाब करेगी।

Tuesday, February 3, 2015

वैलेंटाइन डे या प्रेम विवाह दिवस : प्यार के इजहार के बहाने अश्लीलता

फरवरी माह में प्रवेश करते ही मोबाइल, व्हाट्सएप, फेसबुक इत्यादि पर तरह-तरह के वैलेंटाइन डे से संबधित मैसेज, पोस्टों का आगमन शुरु हो गया है। प्यार की पींगे पनपनी शुरु हो चुकी हैं। गली-बगीचे, मॉल्स-मुहल्ले गुलजार होने लगे हैँ।
प्रेमी युगलों के लिए प्रेम के त्योहार की तरह मनाए जाने वाले वैलेनटाइन डे के लिए प्रेमियों ने प्यार का इजहार करने के लिए भरकस तैयारियां करनी शुरु कर दी हैं। बाजार भी ग्रीटिंग कार्डों से पटने शुरु हो गए हैं। बगीचे, चिडय़ाघर , मॉल्स और होटल्स का हर एक कोना प्रेम का साक्षी बनने को तैयार  है। मालियों ने भी एक-एक फूल की कीमत को समझना शुरु कर दिया है। तैयारियों में अभी शबाब का रंग सही से चढ़ भी नहीं पाया था कि हिंदू महासभा के ऐलान से प्रेमी जोड़ों में सन्नाटा छा गया। हिंदू महासभा ने अगामी १४ फरवरी को वैलेंटाइन डे को प्रेम विवाह दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। अब देखना यह होगा कि हिंदू महासभा अपनी इस घोषणा को अंजाम देने के लिए किस हद तक जाती है।
बीते दिनों हिंदू महासभा के द्वारा अंजाम दिए गए सुपर-डुपर हिट घर वापसी और लव जिहाद जैसे कार्यक्रम बेहद चर्चित व विवादित रहे। देश भर में  घर वापसी जैसे मुद्दे पर विवाद अभी भी जारी है। गौरतलब है कि हिंदू महासभा के कुछ पदाधिकारियों ने इसे घर वापसी का सेकेंड पार्ट भी बता डाला है। पिछले दिनों नौबत यहां तक पहुंच गई थी कि  प्रधानमंत्री मोदी ने विश्व हिंदू परिषद व हिंदू महासभा की इन हरकतों से आजिज आकर पद छोडऩे तक की धमकी दे दी थी। हालांकि महासभा की इस घोषणा में कुछ खास नया नहीं है। इसके पहले भी वैलेनटाइन डे पर हिंदू महासभा और विहिप का काला साया मंडराया रहता था। सरेआम अराजकता  फैलाने वाले इन तरह के संगठनों से प्रेमी युगल खौफजदा रहते थे। अराजकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों से भाई-बहन भी इस विशेष दिन एक साथ  घर से बाहर निकलने से डरने लगे थे।

लेकिन अगर वैलेनटाइन डे के दूसरे पहलू को उठा कर देखें तो इसके अधिकांश हिस्से में अश्लीलता की बू आती है। प्यार को हवस के तराजू में तौलने वाले इस विशेष दिन प्रेेम का द्योतक मानना कितना उचित होगा। हवस, सेक्स को प्रेम की संज्ञा देना कहां तक सही है। अगर इस तरह के मामलों में गहराई से नजर डालें तो सात जन्मों तक साथ निभाने की कसम खाने वाले इन प्रेमी जोड़ों में से अधिकांश का प्रेम संबध  अगले सात महीनों तक भी नहीं टिकता। इन हालातों में पश्चिमी सभ्यता से प्रेरित वैलेंटाइन डे को भारतीय समाज में मान्यता देना में  प्रेमी युगलों को सरेआम अश्लीलता का लाइसेंस देने जैसा है। एक ओर जहां तहजीब और अनूठी सभ्यता के लिए दुनिया भर में जानी-जाने वाली भारतीय संस्कृति के लोग दीवाने हैं, वहीं वैलेनटाइन डे जैसे पश्चिमी त्योहार भारतीय संस्कृति के लिए साक्षात् खतरे के समान हैं।
हालांकि बुराई वैलेनटाइन डे में नहीं बल्कि हमारे मनाने के तरीके में है। भारत में इस डे का मतलब सिर्फ बिनब्याहे प्रेमी युगलों के प्यार के इजहार का है। लेकिन कुछ संक्रमित सोंच वाले लेागों की वजह से इस त्योहार के मायने बदल गए है। जुबां पर वैलेनटाइन डे का नाम आते ही सेक्स और अश्लीलता का तड़का मालूम पड़ता है। जबकि बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह सिर्फ प्रेमी प्रेमियों के लिए ही नहीं, बल्कि किसी बेटे के लिए उसके माता-पिता भी   वैलेनटाइन हो सकते हैं। यह दिवस प्रेम दर्शाने के लिए होता है और प्रेम तो सबके लिए हो सकता है। चाहे वह माता-पिता हों या भाई-बहन या फिर दोस्त। सिर्फ देखने का नजरिया बदलने की जरूरत है। 

Wednesday, January 21, 2015

अन्ना के तीन 'क'- किरण, कुमार और केजरीवाल

अगर समय रहते अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास और किरन बेदी एक साथ खड़े होते  तो निश्चित तौर पर दिल्ली की सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरते।
सनसनाती सर्दी में दिल्ली में सियासी सरगर्मियां तेज हैं। आरोप-प्रत्यारोप का दौर बदस्तूर जारी है। दिग्गज मैदान में हैं। चुनावी चकल्लस है, दुविधा का माहौल है। जनता खामोश है। अन्ना अवाक हैं। 

एक बार फिर से दिल्ली में वही रौनक दिखाई दे रही है जिससे करीब सवा साल पहले दिल्ली की सड़कें गुलजार थीं। बंद कमरों से सत्ता चलाने वाले नेता दिल्ली की गलियों में खाक छानते घूम रहे हैं। भविष्य के जनप्रतिनिधि जनता के बीच जमीनी टोह लेते फिर रहे हैं। आम तौर पर यह नजारा प्रत्येक चुनाव के पहले नजर आता है। लेकिन इस बार का दिल्ली चुनाव खास है। नतीजे दिलचस्प होंगे। जिसका लोगों का बेसब्री से इंतजार है। जी हां, कभी एक मंच से एक ही सुर बोलने वाले अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी आमने-सामने हैं। दिल्ली की राजनीति में पिछले दिनों एक नया नाम जुड़ा था। वह थीं किरन बेदी। जनलोकपाल आंदोलन के समय टीम अन्ना के स्टार प्लेयर रहे केजरीवाल, किरण, और कुमार विश्वास पर लोगों की निगाहें टिकी हैं। दिल्ली के पिछले विधान सभा चुनावों में मुकाबला कांग्रेस बनाम आप का था। लेकिन इस बार मामला आप बनाम भाजपा न होकर किरण बनाम केजरीवाल का हो गया है। मुख्यमंत्री की  कुर्सी के इन प्रबल दावेदारों की ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की चमक से जनता चकाचौंध है। वहीं कांग्रेस आउट ऑफ फ्रेम  है। 


अन्ना आंदोलन के बाद केजरीवाल ने नई राजनीतिक पार्टी का गठन किया था तो लोगों ने उनकी ओर सवालिया निशान खड़े किए थे । जब करीब दो साल पहले अन्ना के सफेदपोश मंचों से निकल कर के केजरीवाल ने बड़ा दांव खेला था, तब शायद अन्ना और उनकी टीम के लिए केजरीवाल उस शैतान बच्चे के समान थे जो घर के बड़ों की मर्जी के खिलाफ कोई काम शुरू करने  जा रहा था। समय के साथ केजरी और अन्ना में राजनीतिक तल्खियां भी बढ़ीं। सबने केजरीवाल को महत्वाकांछी करार दे दिया। तब शायद अन्ना,बेदी और उनके सहयोगियों ने इस बात की क्षणिक कल्पना भी नहीं की होगी कि पार्टी गठन के महज साल भर के भीतर केजरीवाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो जाएंगे। यहां तक कि विरोधियों ने आम आदमी पार्टी के अस्तित्व तक को चुनौती दे डाली थी। कुछ लोग तो यहां तक कयास लगा रहे थे कि तत्कालीन दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद आम आदमी पार्टी खत्म हो जाएगी। लेकिन केजरीवाल की कर्मठता और जुझारूपन को दिल्ली की जनता ने नजर अंदाज नहीं किया। विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित जीत हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी ने खुद को साबित कर न केवल  विरोधियों व आलोचकों मुंह में करारा तमाचा मारा था बल्कि दिल्ली की सत्ता पर भी काबिज हुए थे। केजरीवाल ने भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा था। 

गौरतलब है कि जब केजरीवाल ने पार्टी बनाई थी उस समय अन्ना और बेदी राजनीति में जाने के खिलाफ थे। शायद पार्टी गठन के समय उन्होंने  अन्ना और बेदी को अपने फैसले से सूचित भी कराया होगा। लेकिन शायद उस समय उनकी पहचान सिर्फ अन्ना के मंच से थी। वह मंच ही उनकी ताकत था। केजरीवाल के राजनीति में प्रवेश करने पर एक बारगी लोगों ने यह भी सोंचने से गुरेज नहीं किया होगा कि मंच त्यागते ही केजरीवाल तबाह हो जाएंगे। खुद किरण बेदी की भी यही सोच रही होंगी। यही सोच कर उन्होंने आम आदमी पार्टी से दूरी बनाए रखी। लेकिन उनकी यह सोच ज्यादा दिनों तक काबिज नहीं रह सकी। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। चेहरा चमकाने की जुगत में अन्ना मंच से जुड़े कई चेहरे आप की शरण में जा पहुंचे। उनमें से कुमार विश्वास भी एक प्रमुख चेहरा थे। इन चेहरों ने आम आदमी पार्टी को आम से खास बना डाला। पार्टी ने धमाकेदार जीत के साथ अप्रत्याशित सफलता हासिल की थी। लेकिन अनुभव की कमी के आड़े दिल्ली में आप सरकार हनीमून पीरियड में ही नतमस्तक हो गई। अरविंद केजरीवाल ने 49 दिनों में ही इस्तीफा सौंप दिया। बड़ी जद्दोजहद के बाद चुनाव जीत कर आए आप के नेता इस फैसले से बौखला उठे। एक बार फिर से पार्टी टूट के कगार पर खड़ी हो गई थी। नेता बिचकने लगे थे। पद मोह के भूखे नेता सत्ता खोने के गम में उल्टे केजरीवाल पर ही अनाप-शनाप आरोपों की झड़ी लगानी शुरू कर दी थी। वक्त रहते केजरीवाल ने पार्टी को संभाला और एक बार फिर से चुनावों के लिए कमर कसनी शुरू की लेकिन इस बार वह अकेले मोर्चा संभाल रहे हैं। लेकिन संभलने के पहले ही किरण बेदी ने भाजपा ज्वाइन करके उनको करारा झटका दे दिया है। और तो और भाजपा ने उन्हें पार्टी ज्वाइन करने के महज पांच दिन के भीतर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर केजरीवाल की धड़कने बढ़ा दी हैं। अन्ना आंदोलन के समय इन दोनों ने कभी सोंचा भी नहीं होगा कि उन दोनों की आमने-सामने की भिड़ंत होगी। पार्टी आला कमान को दिल्ली भाजपा में केजरीवाल की टक्कर लेने लायक कोई चेहरा नहीं नजर आ रहा था। इसलिए भाजपा ने चट मंगनी पट ब्याह वाली हालत में अरविंद की काट के लिए उन्हीं के कैडर का नेता चुना। 

आप पार्टी की शुरूआत से ही कदम दर कदम केजरीवाल के साथ चलने वाले कुमार विश्वास आप के मंचों से नदारद दिख रहे हैं। इस बार उन्होंने चुनाव से दूरी भी बना रखी है। हालांकि कुमार विश्वास पहले ही यह बात कह कर धमाका कर चुके हैं कि उन्हें पद का लालच नहीं। उनके पास सीएम बनने के ऑफर आए थे। अगर सीएम बनना होता तो वह 19 मई को ही दिल्ली के सीएम बन जाते। शायद यह कह कर उन्होंने खुद के लिए गहरी खाई खोद ली। भाजपा की तरफ से किरण बेदी के सीएम प्रोजेक्ट होते ही कुमार विश्वास को यह बात न निगलते बन रही होगी न उगलते। 


News Today 22 Jan 15
अन्ना आंदोलन के आत्मविश्वास से लबरेज यह तीन चेहरे लोगों में ऊर्जा प्रवाह करने का काम करते थे। अन्ना आंदोलन के यह तीन (क)- (कु)मार, (कि)रण और (के)जरीवाल का सफर एक साथ अन्ना के मंच से शुरू होता है। लेकिन मौजूदा समय में महज चार साल के भीतर तीन ताकतें रास्ते अलग-अलग रास्ते से एक ही दिशा में आगे बढ़ रही हैं। अगर समय रहते इन तीनों को यह बात समझ आ जाती तो दिल्ली में दोबारा चुनाव की नौबत न आती। लेकिन तब शायद हितों के टकराव की संभावना प्रबल हो जाती। इन सबसे दूर राजनीति को घटिया करार देते हुए अन्ना लोकपाल की राह देख रहे होंगे। खैर जो भी अब मुकाबला दिलचस्प होगा। 


पेपर बाजी-
Daily News Activist 23Jan 15

Sunday, January 18, 2015

शराब पर बहकती सरकार

​पिछले दिनों ऐसी खबरें आ रहीं थी कि मध्य प्रदेश सरकार शराब से वैट हटाने जा रही है । हालांकि बाद में कैबिनेट बैठक में मंत्रियो के विरोध के बाद शिवराज सिंह चौहान ने नई आबकारी नीति द्वारा प्रस्तावित इन परिवर्तनों को ​नकार दिया। 


(13 जनवरी को कैबिनेट की बैठक से ठीक पहले लिखा गया)
ऐसी खबर हैं कि मप्र सरकार ने शराब से वैट हटा लिया है। इसका मतलब है अब प्रदेश में शराब सस्ती हो जाएगी।  शराब सस्ती मतलब नशा सस्ता। नशा सस्ता मतलब बर्बादी सस्ती। बर्बादी मतलब खुद की बर्बादी। रिश्तों की बर्बादी। समाज की बर्बादी। अंतत: देश की बर्बादी।
  एक वाकया याद आता है, तकरीबन सालभर पहले मप्र सरकार ने प्रदेश को नशा मुक्त बनाने का दावा किया था। पार्टी के नेता सार्वजनिक कार्यक्रमों में शराब की बुराई करते नहीं थकते थे। गुजरात की तर्ज पर मप्र में भी शराब बंदी जैसे कानून लाने की कवायद शुरू भी कर दी थी लेकिन अब ऐसे फरमान जारी हो चुके हैं जिनसे शराब के दाम लगातार गिरेंगे।
सरकार के नुमाइंदों ने यह तक कहा था कि प्रदेश में अब एक भी नई शराब की दुकान नहीं खुलेगी। क्या ये वही सुशासन है, जो आम जनता के बीच नशा-मुक्ति कार्यक्रम चलाने की पैरवी कर रहा था। भाजपा के राज में देसी ठेकों पर विदेशी शराब ने भी सिर चढऩे की पूरी तैयारी कर ली थी। लेकिन विरोध के बाद भी देसी ठेकों पर फिलहाल विदेशी शराब के प्रवेश को ग्रहण लग गया है। बढ़ती नशाखोरी के इस दौर में भाजपा ने केंद्र में कुर्सी संभालते ही शराब और तंबाकू उत्पादों पर नकेल कसने की घोषणाएं की गईं थीं।
हालात आज  इसके ठीक उलट हैं। सरकार कदम दर कदम बहक रही है। भाजपा शासित राज्य में ही शराब की कीमतों में भारी गिरावट मतलब नशे की लत को बल देना है। इसके कुछ दिन पहले ही सिगरेट से भी वैट हटा लिया था। इस निर्णय के पीछे तर्क दिया गया है कि शराब की बिक्री बढऩे से प्रदेश सरकार को तकरीबन ६०० करोड़ रुपए सालाना की अतिरिक्त आय होगी। इससे भले ही सरकारी खजाने तंदरुस्त होंगे, लेकिन सामाजिक क्षति की भरपाई कौन करेगा? इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? सरकार होगी या शराब होगी?
भारत में नशा एक बड़ी समस्या बन चुका है। देश का एक बड़ा युवा वर्ग नशे की गिरफ्त में है। युवाओं  के भरोसे भारत के सुनहरे भविष्य का सपना देखने वाली सरकारें भविष्य में किस भारत की कल्पना कर रही हैं? यह अकाट्य सत्य है कि नशा विनाश का कारण बनता है। यह हम जानते हैं, सरकार जानती है। फिर भी इस तरह शराब से टैक्स हटाकर नशाखोरी की लत को बढ़ावा देना विडंबना ही कहा जाएगा।

Thursday, January 8, 2015

क्या यही है रामराज ?

  हर हिंदू महिला को कम से कम चार बच्चे पैदा करने चाहिए। उत्तर प्रदेश के उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महराज की नजर में चार बच्चे पैदा करने से धर्म व देश की रक्षा होगी। एक ओर सरकार जहां जनसंख्या को विकास की राह में रोड़ा मान हम दो,  हमारे दो का नारा दे कर देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश कर रही है वहीं देश के एक सांसद का इस तरह का बयान  देना उचित नहीं है। 
  इन भगवा चोला धारियों के गैर जिम्मेदाराना बयानों से विवादों की लिस्ट में इजाफा हो रहा है। साक्षी महाराज को यह समझना चाहिए कि यदि चार बच्चे जनने से धर्म और देश की रक्षा होगी तो उत्तर प्रदेश इस मामले में अव्वल होता। 80 फीसदी हिंदू आबादी वाले देश के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य  उत्तर प्रदेश में प्रति दंपत्ति चार बच्चों का औसत है, जो कि केरल में प्रति दंपत्ति बच्चों की संख्या से लगभग दोगुना है। इन दोनों राज्यों की तुलना करने पर यह जग जाहिर है कि सबसे ज्यादा धार्मिक उन्मादों का गढ़ उत्तर प्रदेश ही है। कल्पना करिए कि पूरे देश भर में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य हो जाएं तो देश की हालत क्या होगी। 
   शायद साक्षी महराज ने प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांछी योजना मेक इन इंडिया का यही मतलब निकाला है। विशेषज्ञों की नजर में बढ़ती जनसंख्या न केवल सामाजिक और आर्थिक विकास के अभाव का नमूना है बल्कि सामाजिक आर्थिक विकास कम होने का मूल कारण भी है। साक्षी महराज ने इसके पहले भी नाथूराम गोड़से को सच्चा राष्ट्रभक्त भी बताया था। वहीं एक और भाजपा सांसद ने रामजादे-हरामजादे प्रकरण भी शुरू किया था। विहिप लगातार घर वापसी भी करा रही है। आज नसीहतें देने वाले यह नेता कब फतवा जारी करना शुरू कर दें इस बात का कोई अनुमान नहीं है।जन्म से ही हर व्यक्ति को हिंदू बताने वाले महंत सरस्वती और हर बच्चा मुस्लिम पैदा होता है  कहने वाले ओवैसी ने देश की 125 करोड़ जनता को हिंदू-मुस्लिम के बीच में लाकर खड़ा कर दिया है। क्या घर वापसी कर के चार बच्चे पैदा करना और नाथूराम गोड़से की पूजा करना आदि ही रामराज के द्योतक हैं? क्या इन्ही अच्छे दिनों के लिए जनता व्याकुल थी? 

Friday, January 2, 2015

2015 के नाम एक संदेश

डियर 2015,
31 दिसंबर की रात जब दुनिया शराब और शबाब के आगोश में तुम्हारे यानि 2015 के स्वागत में मदमस्त थी, ऐन वक्त मैं कमरे की खिड़की से सटा आसमान की ओर एकटक निहारे जा रहा था। बाहर जश्न मन रहा था। लोग पटाखे-फुलझडिय़ा छुटा कर तुम्हारे आगमन का स्वागत कर रहे थे। जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि आसमान से उठती हर सतरंगी छटा में दिखावटी चमक थी। जाने क्यों इस चमक के भीतर झांक कर देख लेने की जिज्ञासा हो रही थी। इस रोशनी में ही 2015 की एक झलक पा लेने की लालसा हो रही थी। जब तक अपने मन को आसमान में बिखरी उस मनमोहक आतिशी चमक के निकट ले जाता तब तक वह रोशनी, वह चमक मद्धिम हो चुकी होती और बीच रास्ते से ही मन को सांत्वना देते हुए बेमन लौट आता। एक के बाद एक लगातार हो रही आतिशबाजी से आसमान रंगीला हो चला था, मानों वह कुछ दिखाना चाहता था। जश्न में हो रही यह आशिबाजी किसी का मनमोह रही थी तो यकायक उठती यह रोशनी किसी का कलेजा कंपा रही थी। नीले गगन पर रंग बिरंगी रोशनी की मखमली चादर धरती पर कुछ दिखाना चाह रही थी जो लोगों की नजरों से ओझिल था। वह क्या था जो लोग महसूस नहीं कर पा रहे थे?
शायद वह बीते साल की झलकियां थी। यह वह झलकियां थी जो खुद से नजरें चुरा रही थी। खुद को छिपाने का प्रयास कर रहीं थी। आसमान से पड़ती चमकीली रोशनी से धरती की अधनंगी हकीकत लज्जित महसूस कर रही थी। मानो जमीन के अंदर वह खुद की कब्र खोद लेना चाहती हों। शायद उनका कब्र में ही समा जान बेहतर रहेगा। ऐसी कब्र में जहां से उनका भूत भी कभी बाहर न आ सके।
जाने क्यूं ऐसा लग लग रहा था कि सिर्फ तारीख ही बदल रही है और कुछ नहीं। लेकिन वास्तविकता भी यही थी कि सिर्फ तारीख ही बदल रही थी शायद और कुछ नहीं। काश कुछ बदल पाता। जाते-जाते 2014 रो रहा था। चमकीली रोशनी के पीछे दर्द भरे आंसू थे। यह वही आंसू थे जो हजारों निर्दोषों और मासूमों का खून पी कर जन्मे थे। यह वही आंसू थे जो शायद कभी किसी की आंखों में नहीं आना आना चाहते थे। यह वही आंसू थे जो सूख जाना पसंद करेंगे।
जाते-जाते पिछला साल आने वाले साल को अपनी हकीकत से रूबरू करा रहा था। मानों उसे अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहता था। उसे अच्छे-बुरे से परिचित करा देना चाहता था। उसे दुनिया की समझ करा देना चाहता था। ऐसा आभास हो रहा था जैसे एक पिता अपने बच्चे को आने वाले कल के बारे में समझा रहा हो, उसे दुनिया दारी से परिचित करा रहा हो। दुनिया से विदा लेने से पहले वह उसे अपना सर्वस्व उसके हवाले कर देना चाह रहा था। और उससे गुजारिश कर रहा था कि तुम वह गलती मत दोहराना जो मेरे समय में हुइ्र्र। इसी तरह 2014 आसमान में पटाखों की आवाज के साथ चीख-चीख कर 2015  से बोल रहा था कि यह देखो, यह जो निर्दोष तुम्हारे लिए जश्न मना रहे हैं इन्हे कभी निराश मत करना।
वह देखो जो छोटे-छोटे मासूम अपने घरों में इस वक्त अपनी मां के आंचल में सिर छिपा कर सोए हुए हैं, कल सुबह जब तुम्हारा दिन होगा वह ढ़ेर सारी खुशियों, उम्मीदों के साथ स्कूल जाएंगे। उनको उन्हें महफूज रखना । मेरी तरह, पेशावर में उन मासूमों की हत्या का कलंक तुम अपने सर पर मत लेना। उनको जीने देना। एक दिन वही इस दुनिया की हकीकत बदलेंगे। और वह देखों जो बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन , हवाई अड्डों पर जो लोग अपने घरों को जा रहे हैं, वह जो अपने सपनों को साकार करने जा रहे हैं, वह जो अपने प्रियतमों से मिलने जा रहे हैं, उनकी खुशी देखो, उनकी यह खुशी हमेशा बरकरार रखना। उन परिजनों को देखो जो अपनों  का इंतजार कर रहे हैं। उनके इंतजार को इंतजार ही मत रहने देना।
इसी तरह वह सारी रात तुम्हे यानि 2015 को समझाता रहा, देश-दुनिया से परिचित कराता रहा। इस बीच वह तुम्हे  सीरिया, इराक ले गया। वहां के लोगों का दर्द दिखाया। लंदन,न्यूयॉर्क ले गया। दिल्ली, पेरिस भी ले गया। मोदी-ओबामा से मिलवाया। कैलाश-मलाला से मिलवाया। अलकायदा, आइएस और तहरीक-ए-तालिबान से...! नहीं..नहीं.. इनसे नहीं मिलवा सकता। एक पिता अपने बच्चे को लफंगों की संगत में कभी नहीं देख सकता। रात भर यही सिलसिला चलता रहा। रात का घुप्प अंधेरा छंटने को था। सूरज की पहली किरण धरा पर अपनी छटा बिखेरने को आतुर थी। 2014 दम तोड़ चुका था और अगले ही छण में 2015 यानी कि तुम धरती में प्रवेश कर रहे थे। आते-आते तुमसे एक गुजारिश मेरी भी... याद रखना दुनिया बहुत बहकाऊ है, अच्छाई और बुराई से घिरी हुई है, उम्मीद है कि तुम नहीं बहकोगे। तुम अच्छाई का दामन थाम कर लोगों की जिंदगी में सुख,  चैन, अमन , शांति की बारिश कर दोगे। इसी उम्मीद के साथ अब हर सुबह होगी तुमसे मुलाकात और 365 दिन तक रहेगा तुम्हारा साथ। 

तुम्हारे अपने 
समस्त दुनिया वासी