Monday, November 3, 2014

दावे नहीं दवा चाहिए साहेब

उत्तर प्रदेश सरकार लाख दावे कर ले, मगर प्रदेश में किसानों  की हालत जग-जाहिर है। गाहे-बगाहे किसानों के साथ अत्याचार की घटनाएं सामने आती रहती हैं।त्तर प्रदेश में किसानों की बदतरी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है पिछले दिनों एक किसान ने लोन की राशि न अदा कर पाने के कारण आत्महत्या कर ली। छह बीघे जमीन के मालिक अशोक कुमार ने करीब सात साल पहले किसान क्रेडिट कार्ड स्कीम के तहत बैंक से 50 हजार का लोन लिया था। न चुका पाने की हालत में जो बाद में बढ़ कर 95 हजार का हो गया। इसी तरह अशोक ने अन्य जगहों से भी लोन ले रखा था। लेकिन चुकाने में असमर्थ होने के कारण उसने मौत को गले लगाना ज्यादा मुनासिब समझा। इसी तरह कुछ दिनों पहले एक और मामला सामने आया था जिसमें 28 बीघे जमीन के मालिक गन्ना किसान राहुल कर्ज का बोझ नहीं सहन कर सका और मौत को गले लगा लिया। आकड़े उठाकर देखें तो किसानों की बदहाली को बयां करने वाली ऐसी अनेकों घटनाएं मिल जाएगी। जिसमे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की पीड़ा किसी से नहीं छुपी है। अगर फिर भी राज्य सरकार किसानों की बहाली का दावा कर रही है तो यह समझ से परे है।
आलम यह है कि सरकार योजनाएं बनाती है और धरा पर आते-आते इन योजनाओं की दम निकल जाती है। सारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। असल में योजनाए किसानों के लिए नहीं बल्कि सरकार से किसान के बीच बैठे माफियाओं के लिए बनती हैं। प्रदेश में अन्य राज्यों की अपेक्षा पर्याप्त कृषि भूमि होने के बावजूद भी यहां की सूरत बदहाल है। बड़ी-बड़ी महत्चकांछी योजनाएं बन कर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। सरकार ने सिंचाई संसाधनों की दुरस्तगी के लिए समर्सिबल बोरिंग के लिए अनुदान की व्यवस्था शुरू की थी। इस योजना का लाभ लेने के लिए किसानों को अधिकारियों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। जिसमें अनुदान से मिलने वाला आधा धन भ्रष्टाचार के नामे हो जाता है। बोरिंग के बाद बिजली कनेक्श मिल जाना भी बड़े भाग्य की बात होती है। स्थान के मुताबिक 1 लाख रुपए से लेकर 3 लाख तक की घूस देने के बावजूद भी किसानों को अधिकारियों के नखरे सहने पड़ते है।

भ्रष्टाचारगी का आलम यह है कि किसानों को बीज खरीदने से लेकर गल्ला बेंचने तक हर जगह भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। उन्नत बीज उपलब्ध कराने वाली सहकारी समितियां तय कीमत से डेढ़ से दो गुना ज्यादा कीमत वसूलती है। यही हाल उर्वरकों में भी है। नहर, बम्बा आदि में समय से पानी न आने पर किसानों को मंहगी दरों पर निजी ट्यूबवेल से सिंचाई करवानी पड़ती है। खून-पसीने की मेहनत के बााद जब फसल लहलहा कर होती है तो बाजार भाव देखकर किसानों का चेहरा खिलने के पहले ही मुरझा जाता। वहीं किसानों से समर्थन मूल्य पर गल्ला खरीदने का दावा करने वाली सरकार द्वारा निर्धारित सहकारी समितियां अनाज खरीदने से मना कर देती हैं। अगर खरीदती भी हैं तो किसानों को अपनी बारी का इंतजार करते-करते तीन-तीन दिन तक क्रय केंद्र के बाहर धूप-पानी में डेरा डाल कर पड़े रहना होता है। इन सबके बावजूद भी अगर गल्ला बिक गया तो भुगतान के समय निश्चित कोई न कोई बाधा या कम भुगतान करने की शिकायतें आम हैं। वहीं गन्ना किसानों के हालात पर चर्चा करें तो मौजूदा गणना के मुताबिक यूपी की चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का करीब 5000 करोड़ का बकाया है।

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