(जनसत्ता में 12 दिसंबर 2014 को प्रकाशित असंपादित लेख।जनसत्ता की वेबसाईट पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें अथवा जनसत्ता के ई—पेपर में पढ़ने के यहां क्लिक करें )
कभी-कभी सड़क पर चलते-चलते खयाल आता है और खयालों में ही पूरा महल खड़ा हो जाता है। उन खयालों में इतना डूब जाता हूं कि आगे की सुध ही नहीं रहती। असली मंजिल भूल कर धरातल तक पहुंचने का सिलसिला शुरू ही होता है कि व्यवस्था की शक्ल में पत्थर से टकरा कर एक झटके में खयालों का वह महल चूर हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? यह समझने के लिए निगाहें किसी को खोजती फिरती हैं। फिर खयाल आता है कि मेरी ही तरह अन्य भी इस नीरस भौतिकता में जी रहे हैं। कई दफा उचित व्यक्ति के पास पहुंच कर भी ठहर जाता हूं। फिर अपने खयालों का पुलिंदा अंदर ही समेट कर छटपटा कर रह जाता हूं। आखिर हम लोग क्यों जी रहे हैं? एक बार यह सवाल सुन कर कोई भी कुछ क्षण के लिए सोचने को मजबूर हो सकता है। उस रात लेटे-लेटे मैंने खुद से यह सवाल किया तो जवाब ढूंढ़ते हुए रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला।
भौतिकता के भय में अवसाद से जूझने का सिलसिला शुरू हो गया। न चाहते हुए भी जवाब का खयाल छोड़ कर भौतिकता की अंधी भाग-दौड़ में शामिल होने की तैयारी करने लगा। पेट की भूख और जीने की जरूरत ने इंसान से उसका समय चुरा लिया है। खुद के बारे में उसे सोचने का वक्त नहीं मिल पाता। जिंदगी भर कोई भाग-भाग कर घर पर अपने पीछे पल रहे प्राणियों के लिए दाने-पानी का इंतजाम करता है तो किसी के पास सालों-साल या फिर दशकों के दाने-पानी का इंतजाम होते हुए भी वह न जाने किस मंजिल पर पहुंचने की होड़ में है। इस सवाल का जवाब शायद उनके पास भी नहीं होगा।
दिन भर की जद्दोजहद के बाद शाम को घर लौटते समय फिर से खयालों का सिलसिला शुरू हो जाता है।
यह सिलसिला यों ही भौतिकता से शुरू होकर भौतिकता पर आकर ठहर जाता है। निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले ही फिर सवालों के घेरे में उलझ जाता हूं। जिंदगी घड़ी की सुइयों में सिमट गई है, जिनके इशारे पर दिन भर चकरघिन्नी बने फिरते हैं और बेसब्री से वक्त के ठहरने का इंतजार करते हैं। रोजाना बिस्तर पर जाकर एकबारगी वक्त के ठहर जाने का अहसास होता है। लेकिन अहसास के हकीकत में बदलने से पहले ही वह महज मृग-मरीचिका साबित होता है। अगली सुबह हम फिर घड़ी की सुइयों के इशारे पर नाचने के लिए खुद को तैयार करने के लिए जुट जाते हैं। इस बीच जो नींद आती है, उसे नींद का नाम दिया जाए या फिर अगले दिन के लिए खुद को फिर से तैयार करने का जरूरी खुराक। इस फेर में अक्सर हम असल जिंदगी के जरूरी खुराक लेना भूल जाते हैं। जिंदगी के कुछ पन्ने पलट जाने के बाद हमें इस बात का आभास होता है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इस भागमभाग-सी जिंदगी के बीच हम न जाने किससे आगे जाने की होड़ में रहते हैं और पीछे छूट जाता है हमारा सुख-चैन और यथार्थ। थक-हार कर जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो बचपन से लेकर पचपन तक हमने जो सपने संजोए थे, सभी बिखरे हुए नजर आते हैं। चाह कर भी हम भागना नहीं छोड़ पाते, क्योंकि पैदा होते ही हमें चलना सिखाया जाने लगता है। जिंदगी की इस भाग-दौड़ में हम अनेक मुकाम हासिल करके भी न जाने खुद को, रिश्तों, मूल्यों और यहां तक कि अपने गांव और देश को भी कितना पीछे छोड़ आते हैं। लेकिन इतना आगे आकर भी हम कहीं नहीं पहुंच पाते हैं। जिंदगी के अंतिम दिनों में सुकून ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। हासिल कुछ नहीं! ज्यादा से ज्यादा नए किरदार में जिंदगी का वही सिलसिला!
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